कंपकंपायी जब धरती, तो मानो
फट पड़ा आसमाँ ही
और देखा मैंने मौत को
बेहद क़रीब से.
बख़्श दिया उसने मुझे
शायद मरा समझकर
पर जी न भरा उसका
तब ही तो, आगे बढ़ चली.
पलक झपकते ही जैसे,
बदल गईं सारी तस्वीरें
अब वो मौज़ूद थी,हर जगह
किसी खिड़की पर लटकी हुई
कहीं दीवारों में धँसी हुई
फटी आँखें देख पा रही थीं
टुकड़ा-टुकड़ा ज़िंदगी
पत्थरों में दबी हुई.
धीरे-धीरे घुटती गई आवाज़ें
थम गया आर्तनाद भी
जमा होते रहे शरीर
परत-दर-परत, मलबा बनकर
चहुँ ओर सिर्फ़ मौन
कुछ बेबस, स्तब्ध आँसू भी
हर चेहरा सिर्फ़ मातम से सना था
'मौत' का तांडव ही ऐसा घना था
हाँ, आज मेरा शहर श्मशान बना था...!
प्रीति 'अज्ञात'
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