हर इक ख़्वाब अब, अधूरा सा लगता है
दिल का वही कोना आज फिर, टूटा सा लगता है.
अपना समझ सहेजते रहे, उम्र भर जिसको
वही रिश्ता अब हाथों से, छूटा सा लगता है.
शहर में आए हैं यूँ तो, पहले भी कई दफ़ा
इस बार ही सब कुछ, अजूबा सा लगता है.
दिन भी वही है और रातें भी पहली सी हीं
फिर क्यूँ हर लम्हा, अछूता सा लगता है.
वो आसमाँ के जगमगाते-रोशन सूरज,
मैं ज़मीन से टिमटिमाती-बुझती इक लौ.
उन तक पहुँच पाने का ख्वाब; हाँ ख़्वाब है
पर दिल को बेहद, अनूठा सा लगता है.
एक अरसा हुआ खुशी का हिसाब लगाए,
एहसास आज भी ये हमसे, रूठा सा लगता है.
अपने वजूद को तलाशते; आईने से मिले जब हम,
देखा किए तो 'अक्स' भी अपना, झूठा सा लगता है.
प्रीति 'अज्ञात'
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (4-1-2014) "क्यों मौन मानवता" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1482 पर होगी.
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
सादर...!
बहुत-बहुत धन्यवाद, सूचना देने के लिए भी आभार !
Deleteअति सुन्दर !
ReplyDeleteनया वर्ष २०१४ मंगलमय हो |सुख ,शांति ,स्वास्थ्यकर हो |कल्याणकारी हो |
नई पोस्ट विचित्र प्रकृति
नई पोस्ट नया वर्ष !
धन्यवाद ! आपको भी नव-वर्ष की शुभकामनाएँ !
Deleteशुक्रिया !
ReplyDeleteबहुत ही कोमल भावनाओं में रची-बसी खूबसूरत रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteधन्यवाद, संजय जी !
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