उलझे-उलझे से, उस
पाइथागोरस प्रमेय की तरह,
जिसे समझा तो सबने
पर संतुलित कर पाना
हरेक के बस की बात नहीं.
लाख कोशिशों के बावजूद भी
नहीं होता आसां,
हर एक पक्ष को उसकी
अहमियत का एहसास दिला पाना,
और कोई न कोई, नाखुश हो
बिगाड़ ही देता है
मन-मस्तिष्क का संतुलन.
पुन: नये सिरे से समझकर
सुलझानी पड़ती है, हर बिगड़े
हिस्से की उलझन
कि क्षतिग्रस्त हुए बग़ैर ही
संरक्षित रहे सबका मूल रूप.
क्यूँ न खुद ही
तोड़ दें सभी, व्यर्थ की
आकांक्षाओं के सारे बंधन
न करें कुछ भी अपेक्षा.
समझकर तो देखें कभी
दूसरे पक्ष की महत्ता भी,
स्वयं की खुशियों का विभाजन कर.
और फिर जोड़ दें इसमें
उम्मीदों के बहुगुणन से उपजे
खुशियों के वो तमाम पल.
निकाल बाहर फेंकें
शून्य कर डालें
अपना सारा वज़ूद,
तब कहीं जाकर
संतुलित हो पाएगा;
जीवन का हर
जटिल समीकरण.
प्रीति 'अज्ञात'
रिश्ते उलझे धागे से होते हैं, गाँठ पड़ती जाती है जितना सुलझाओ
ReplyDeleteसुलझे रिश्ते न के बराबर ही होते हैं
तोड़ देना भी आसान नहीं होता
रिसते रहते हैं
शुक्रिया, रश्मि जी..सही कहा आपने :)
Deleteअरे वाह, ये तो मेरे कविता से बहुत मिलती जुलती सी है ......... बहुत सुंदर !! बहुत बेहतरीन !!
ReplyDeleteढेरों शुभकामनायें !!
शुक्रिया, मुकेश जी. :)
ReplyDelete