Wednesday, May 14, 2014

तुम स्त्री हो... ?

बरसों से दबी हुई
रिवाजों के मलबे तले
समाज की बनाई, आग्नेय चट्टानों के बीच
पिसती गई परत-दर-परत
रिसता रहा लहू अपने ही
लहुलुहान वजूद से
झेलीं अनगिनत यातनाएँ भीं.
तमाम यंत्रणाओं और प्रताड़नाओं के बीच 
जब भी उठना चाहा
होता रहा, देह पर अतिक्रमण.

सुरक्षा के नाम पर हुई नज़रबंद
चलीं अविश्वास की अनगिनत आँधियाँ भी
जलाया अपनों की ही क्रोधाग्नि ने
रिश्तों को जीत लेने का
हर प्रयत्न अब असफल ही था
कि हर उठती कोशिश को
नियति का भीषण प्रहार भेद देता
तमाम झंझावातों के बीच
आख़िर कुचल गयी आत्मा भी
धंसता गया, तन-मन
उन्हीं दो पाटों के बीच.

समय ने और भी गहरा दिए
गर्त के बादल
धूल-धूसरित शरीर अब
खिलता नहीं पहले सा
'मौन' ही बन गया पहचान उसकी
शायद ये प्रायश्चित है
उसके 'होने' का
लेकिन डर है...
कहीं उसे इंतज़ार तो नहीं
कि कोई आकर ढूँढ निकालेगा उसे
उत्खनन में
फिर पा लेगी वो एक नया नाम
हृदय थोड़ा अचंभित और द्रवित हो
चीत्कार ही उठा सहसा
तुम 'स्त्री' हो या 'जीवाश्म'..... ??

प्रीति 'अज्ञात'

9 comments:

  1. कल 18/05/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  2. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !

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  3. वाकई हम स्त्रीहैं या जीवाश्म।

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  4. बहुत-बहुत आभार, यशवंत जी, सुशील जी , आशा जी ! आपसे और मेरी पोस्ट के सभी पाठकों से आग्रह है, आप अपने ब्लॉग की लिंक भी दिया करें, जिससे मैं भी उन तक पहुँच सकूँ. शुक्रिया :)

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  5. वाह ...मन को उद्वेलित करते भाव

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    1. शुक्रिया, मोनिका जी !

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  6. बहुत सुंदर, स्त्री की चिर व्यथा को व्यक्त करती सुंदर रचना..

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  7. जीवित जीवाश्म :-(

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  8. मेरी पसंदीदा विधा पर की गयी पसंदीदा विषय की कविता मुझे बहुत पसंद आयी .....
    सार्थक सृजन ........
    बहुत बधाई

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