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बैठी रही मैं यूँ ही
बहुत देर तक
अवाक, हैरां, हतप्रभ.
क्यूँ न कह सकी मैं
वो सब कुछ,
जिसे तुम तक पहुँचाने के लिए
मन-ही-मन
न जाने कितनी
कहानियाँ गढ़ी थीं मैंने.
तेरी आँखों में छिपी हर हसरत,
दर्द में डूबा हर एहसास,
जख़्म कुरेदती हर मायूसी
खुद-ब-खुद
पहुँचती जा रही थी, मुझ तक.
और ये डर भी
भाँप लिया मैंने,
कि कहीं पढ़ न लूँ
मैं तेरे मजबूर चेहरे को;
जहाँ सब कुछ
असामान्य होते हुए भी
एक अनजाना-सा
ढोंग रच रहे थे तुम.
सो रहने दिया मैंने भी
मुस्कुराकर, यथावत ही
तेरी नज़रों का
हर वो भरम,
कि जी सकें हम दोनों ही
अपनी तथाकथित
निर्दोष 'ज़िंदगानी'
और सुलझ सके हर उलझन
इस नाज़ुक-सी डोर की.
पर दिल तो फिर भी
भरा जा रहा था
अंदर-ही-अंदर
अपनी ही जन्मी चीत्कारों से,
ढाँढस दे रही थी बेबसी
सपनों की टूटी
उन सारी अपाहिज दीवारों से,
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मलबे में कहीं मुँह छुपाए.
शब्द सारे बह गये
बन अश्रु-धार,
हाँ, उसी कोरे काग़ज़ पर,
जहाँ तेरी-मेरी कहानी
लिखी जानी;
अभी बाकी थी.........!
प्रीति 'अज्ञात'
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