Wednesday, January 15, 2014

तुम इंसानों की बस्ती में...

तुम इंसानों की बस्ती में
सब कुछ बिकाऊ है
लगता है बाज़ार रोज ही
रिश्तों की सब्जी-मंडी का
जहाँ तौला जाता है
हर एक रिश्ता;
मोल-भाव किया जाता है
उससे होने वाले ऩफा-नुकसान का,
तय की जाती है
संभालकर रखने की 
एक निश्चित अवधि.

मात्र कोरा विश्वास या 
चाहत ही नहीं रही, किसी के
संरक्षित रहने का मापदंड.
कई मर्तबा रोज ही दिखने वाली
और आसानी से उपलब्ध वस्तुएँ भी
कोफ़्त-सी पैदा कर देती हैं
और उन्हें उठा बाहर फेंकने में
ज़रा भी नहीं हिचकता
वही खरीददार
जिसने खुद ही बड़े जतन से
कभी उसे सहेजकर रखा था.

दिल, मोहब्बत, प्यार-व्यार
भरोसा, साथ, वक़्त, जज़्बात,
भावनाएँ, उम्मीदें, समर्पण
सब कौड़ी के मोल बिकते हैं यहाँ,
खरीद लेते हैं आकर इन्हें
अक़्सर ही संवेदनशीलता का
चोगा ओढ़े, बुद्धिजीवी वर्ग के
कुछ मौका-परस्त लोग
और उछाल देते हैं, जी चाहे जहाँ.
गिर चुकी है कीमत आत्मा की
बोली लगती है परमात्मा की
हाँ, बिकने लगी है अंतरात्मा भी अब
तुम इंसानों की बस्ती में......

प्रीति 'अज्ञात'


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