एक दिन लोग याद करेंगे
वे सभी बातें जो
समय की कमी का रोना रोते हुए
सुनी ही न जा सकीं कभी
वे सभी दुःख जिन्होंने चाहे थे
प्रेम के दो मीठे बोल,
फोन के होल्ड पर दूसरी ओर
मौन ही रखे रह गए
वे सारी खुशियाँ
जो साथ मनाये जाने की उम्मीद में
प्रतीक्षा की खिड़की पर
बरस दर बरस सजी, ठगी खड़ी रहीं
वे नाम जिन्होंने अपनी रेखाएँ उनके नाम लिख दीं,
जो व्यस्त रहे नई मंज़िलों की तलाश में
भटकते रहे घाट-घाट
जबकि उन्हें याद रखना चाहिए था
उन दुआओं को
जो उम्र भर चुपचाप साथ चलती रहीं
लेकिन हुआ यूँ कि
वे सभी पल जो मिलकर जिए जा सकते थे कभी
एक-एक कर अकाल मृत्यु को प्राप्त होते रहे
उन सभी ख़्वाबों को भी मुक़म्मल होना था
जो यह सोच अधूरेपन की देहरी पर ठिठके रहे
कि शायद कभी.... प्राथमिकताओं की सूची में
बने रिक्त स्थानों के मध्य ही सही
वे भी पा जाएँ जगह
पर वे स्थान भी वर्गानुसार आरक्षित निकले!
अब जबकि प्रतीक्षा की गहरी झाइयाँ
झुँझलाकर आँखों से नीचे लगी हैं उतरने
तो सरकने लगी है उम्मीद भी
और कभी उभरी थीं जो अपेक्षाएँ
वे उपेक्षा की सीढ़ियों पर चढ़ते-उतरते, उकता
हाथ जोड़ विदा लेना चाहती हैं सादर
कि सबके समय की विवशता
इधर भी ढल चुकी है थकान बन
और 'प्रेम' किसी शिक्षित बेरोज़गार की तरह
स्नेह, परवाह और उम्मीद की तमाम निरर्थक डिग्रियों को जला
हर भाव से मुक्त होना चाहता है!
पर तुम देखना!
एक दिन.....लोग याद करेंगे!
- प्रीति 'अज्ञात'
Pic Credit: Google
वे सभी बातें जो
समय की कमी का रोना रोते हुए
सुनी ही न जा सकीं कभी
वे सभी दुःख जिन्होंने चाहे थे
प्रेम के दो मीठे बोल,
फोन के होल्ड पर दूसरी ओर
मौन ही रखे रह गए
वे सारी खुशियाँ
जो साथ मनाये जाने की उम्मीद में
प्रतीक्षा की खिड़की पर
बरस दर बरस सजी, ठगी खड़ी रहीं
वे नाम जिन्होंने अपनी रेखाएँ उनके नाम लिख दीं,
जो व्यस्त रहे नई मंज़िलों की तलाश में
भटकते रहे घाट-घाट
जबकि उन्हें याद रखना चाहिए था
उन दुआओं को
जो उम्र भर चुपचाप साथ चलती रहीं
लेकिन हुआ यूँ कि
वे सभी पल जो मिलकर जिए जा सकते थे कभी
एक-एक कर अकाल मृत्यु को प्राप्त होते रहे
उन सभी ख़्वाबों को भी मुक़म्मल होना था
जो यह सोच अधूरेपन की देहरी पर ठिठके रहे
कि शायद कभी.... प्राथमिकताओं की सूची में
बने रिक्त स्थानों के मध्य ही सही
वे भी पा जाएँ जगह
पर वे स्थान भी वर्गानुसार आरक्षित निकले!
अब जबकि प्रतीक्षा की गहरी झाइयाँ
झुँझलाकर आँखों से नीचे लगी हैं उतरने
तो सरकने लगी है उम्मीद भी
और कभी उभरी थीं जो अपेक्षाएँ
वे उपेक्षा की सीढ़ियों पर चढ़ते-उतरते, उकता
हाथ जोड़ विदा लेना चाहती हैं सादर
कि सबके समय की विवशता
इधर भी ढल चुकी है थकान बन
और 'प्रेम' किसी शिक्षित बेरोज़गार की तरह
स्नेह, परवाह और उम्मीद की तमाम निरर्थक डिग्रियों को जला
हर भाव से मुक्त होना चाहता है!
पर तुम देखना!
एक दिन.....लोग याद करेंगे!
- प्रीति 'अज्ञात'
Pic Credit: Google
बहुत ही सुंदर ,लाजबाब रचना प्रीति जी ,सादर स्नेह
ReplyDeleteसुंदर
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन टीम और मेरी ओर से आप सब को मजदूर दिवस की हार्दिक मंगलकामनाएँ !!
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 01/05/2019 की बुलेटिन, " १ मई - मजदूर दिवस - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteसादर
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ३ मई २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वाह बहुत सुन्दर गहरे उतरते भाव सहज अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत कुछ बीत जाने के बाद ही याद आता है...
ReplyDeleteपछतावा होता है खोने का !!!
बहुत सुन्दर... हृदयस्पर्शी रचना..।
ReplyDeleteवाह!!!!