लड़की ढूँढ रही थी पानी
तलाश करते-करते
पपड़ा चुके थे होंठ
सूखता गला रेगिस्तान से रेतीले अंधड़ों से जूझते हुए
गटकने लगा स्वयं को
पर फिर भी तैयार न था पराजय को
इधर धरती पटी हुई थी कंक्रीट के पक्के विकास से
और लेनी पड़ी थी उदास माटी को विदाई
वो चाहते हुए भी नहीं सोख पाई
बीती बारिश को
होती आज तो अवश्य ही अपनी छाती से लगा
बुझा देती हर नन्हे पौधे की प्यास
पौधे जो एक दिन वृक्ष बन
अपनी शाखाओं से आसमान तक पहुँच
बादलों को बरसने का निमंत्रण दे सकते थे
वे बेचारे भ्रूण हत्या का शिकार हुए
गाँव में हर तरफ सूखा मुँह लिए
लज्जित खड़े थे पोखर, नदी, तालाब, तलैयाँ
लड़की जान चुकी थी कि
आज भी घर में नहीं पकेगा खाना
भोजन की उम्मीद में उसे भागना होगा
शहर की ओर
सुना है, शहर में सब मुमकिन है!
यहाँ आधुनिकीकरण की होड़ ने
भले ही रेत दिया है धरती का गला
पर पानी क़ैद है बोतलों में
खूब बिकता है औने-पौने दामों में
उसे ख़रीदना होगा
जीवन का मूल आधार
गँवार लड़की कहाँ जानती है
अपने मौलिक अधिकार!
लड़की दौड़ रही है
जैसे दौड़ा करती थी उसकी माँ
और उसके पहले नानी
-प्रीति 'अज्ञात'
#विश्व_जल_दिवस #World_Water_Day
Pic. Credit: Google
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होली न खेलने के सबके अपने सौ कारण हो सकते हैं. मेरे भी हैं. हाँ, मुझे तो इस दिन हमेशा ही लगता है कि धरती फटे और मैं उसमें समा जाऊँ. यद्यपि गुजरात में इसका वो रंग देखने को नहीं मिलता जैसा कि बचपन से भिंड, ग्वालियर, आगरा, अलीगढ़, दिल्ली, लखनऊ, चंडीगढ़, बनारस, मिर्ज़ापुर में देखती आई हूँ. वहाँ तो अगर होली है तो लाख जुगत करके भी आप बच नहीं सकते! आपके अपने मित्र जयचंद बन जाते हैं. रंग-गुलाल की शिष्टता तो भूल ही जाइये, जब तक कीचड़ में न लोटाया या चेहरे पर सिल्वर पेंट न चिपकाया; वो भी कोई होली हुई! फिर भले ही अगले पंद्रह दिन तक कान के पास लगे रंग के न हटने के लिए दोस्तों को कोसते रहें, टीचर को सफाई दे-देकर थक जायें और दीवार-आँगन को साफ़ करते-करते घर की महिलाएँ 'नास जाए नासपीटों का!' कहकर उन लोगों को गालियाँ न दें..तब तक होली होती ही नहीं! ये सब त्योहार से उपजे सुन्दर भाव हैं तभी तो सब तरफ़ लाख़ रंग उड़ाने, बाल्टी भर-भर फेंकने और खूब शोर मचाने के बाद भी मीठी गुजिया की तश्तरी आपका स्वागत करती है. कही कढ़ी-चावल बनते हैं तो कहीं पुलाव, दहीबड़े से स्वाद कलिकाओं को तृप्त किया जाता है. पूरी-कचौरी तो आगे-पीछे बनना तय ही है. खाना-पीना, मस्ती और पुरानी बातों को भूलकर मेल-मिलाप यही इस देश के सभी त्योहारों का मूल भाव रहा है. यही हमारी पहचान भी है.
कहने का तात्पर्य यह है कि आप खेलें, न खेलें....ये आपकी मर्ज़ी है पर हर बात में इतिहास को मत कुरेदा कीजिये. हर पर्व के दिन ही उसकी बुराई क्यों करनी? इससे केवल और केवल नकारात्मकता फैलती है. ये साल के हर माह में पड़ने वाले त्योहार ही हैं जो प्रसन्न रहने के अवसर देते हैं. इस बहाने ही सही पर लोग एक-दूसरे से मिल तो लेते हैं! बधाई देने के लिए ही सही उन्हें अपने जीवित होने का एक सन्देश तो देते हैं! परिवार के साथ गुजारने को एक दिन तो मिल जाता है!
इन पर्वों का ज़िंदा रहना इसलिए भी आवश्यक है कि मनुष्यता शेष रहे! जब हम किसी अपने के गले लगते हैं तो वह जीवन का सबसे ख़ूबसूरत अनुभव और स्पर्श होता है. हमारे त्योहार इन पलों को हमारे जीवन में बिन जताये परोस देते हैं. वरना इस व्यस्त, गलाकाट, राजनीति और स्वार्थ से भरी दुनिया में किसके पास समय है! बल्कि अहसासों के साथ चलने वाले तो अब मूर्ख ही समझे जाने लगे हैं.
होली, दीवाली, ईद, क्रिसमस, संक्रांति और कितने ही ऐसे त्योहार हैं, जो यदि न होते तो जीवन नीरसता और विकृतता से पूरी तरह भर गया होता. हम यूँ भी रोबोट की ज़िन्दग़ी जीने लगे हैं. ऐसे में हमें हमारी संस्कृति को गले लगा, उसे बाँहों में भर चलना ही होगा. हमारी भारतीयता की कहानी इन्हीं में शेष है और इसे जीवित रखना हम सबका उत्तरदायित्त्व है.
कहीं हिन्दू-मुस्लिम के फेर में फँसकर हम सब कुछ खो न बैठें! सत्ता और विपक्ष की रस्साकशी और सारी लगाई-बुझाई के बीच किसका भला हो पाया है पता नहीं! पर वैमनस्यता बढ़ती जा रही है. होली का शुभ अवसर है, ऐसे में सब कुछ भुलाकर जादू की झप्पी मारिये और जीने में सुक़ून के दो पल जोड़िये. सरकारें आनी-जानी हैं, ये हम और आप ही हैं जिन्हें साथ चलते रहना है. 😊
रंग और स्नेह भरी हर शुभकामना आप सबके लिए 💓
- प्रीति 'अज्ञात'
#होली #त्योहार
कई बार प्रेम तब होता है
जब उसे नहीं होना चाहिए था
इंसान जीता है व्यर्थ ही
जबकि उसे मर जाना चाहिए था
किसान हाथ जोड़ पूजता है रहनुमाओं को
जबकि उनका कॉलर पकड़ खींच लेना चाहिए था
स्त्री वर्षों बचाती है बिखरे रिश्ते को
जबकि उसे पहले ही दिन बाहर निकल जाना चाहिए था
लोग उम्र-भर ढकते हैं अपनी-अपनी कमियाँ
जबकि उनमें सुधार या फिर उन्हें स्वीकार कर लेना चाहिए था
उलझ जाते हैं सब खोखले शब्दों के मायाजाल में
जबकि बहेलिए को दर्पण दिखाना चाहिए था
रिश्ते, राजनीति, प्रेम या कि जीवन
जीतता आया है सबमें झूठ ही सदैव
जबकि हर बार सच को सामने आना चाहिए था
सच को सामने आना ही चाहिए था
- कॉपीराइट © प्रीति 'अज्ञात'
तस्वीर: गूगल से साभार
दुनिया ये पागल सारी है
अपनों से हरदम हारी है
छूटा शहर, गली, हर गाँव
सफ़र अभी तक जारी है
जो आये, आकर लौट गए
दिल उनका आभारी है
सुख के बस ढलते किस्से हैं
दुःख का हर पाँव भारी है
पेड़, छाँव, छत खो बैठे
जीवन की धूप क़रारी है
इश्क़, मुहब्बत, आशिक़, दिल
सब मरने की तैयारी है
- © प्रीति 'अज्ञात'