Friday, January 20, 2017

सभ्यता के नाम पर

मैं गले में फांस की तरह
अटका कोई शब्द हूँ
कैमरे के हर कोण से झांकती 
शेष हड्डी भी हो सकती हूँ, किसी की 
निरर्थक, अवांछित
पर फिर भी भुनाया जा सकता है जिसे!  

हूँ अपने ही घूर्णन से
नियमित दिन-रात बदलती
थकी-हारी धरा  
जिसका एक सूत भी
बहक जाना 
भीषण प्रलय का आह्वान होगा

मैं सभ्यता के अंतिम दौर की 
आखिरी पीढ़ी की 
दम तोड़ती उम्मीद हूँ
हौसलों को पुनर्जीवित करने में 
पराजित, निढाल, एकल श्वांस हूँ 
हाँ, मैंनें स्वीकार किया 
कि अच्छाई की समाप्ति 
बुराई के सतत प्रयासों का 
मिश्रित परिणाम है 
मैं आधुनिक से
आदि मानव बनने की प्रक्रिया का
निरीह प्रारंभिक काल हूँ
-प्रीति 'अज्ञात'

2 comments:

  1. सुन्दर ।।।।। ये तो अनवरत चक्र है ।।।।

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  2. सुन्दर ।।।।। ये तो अनवरत चक्र है ।।।।

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