Sunday, December 8, 2013

मध्यांतर



एक वक़्त था, जब...
पौ फटते ही
सुनाई देती थी
मुर्गे की बांग
मस्जिद की अजान
चिड़ियों की चहचहाहट
दूधवाले की साइकिल की घंटी
नल से गिरते पानी की आवाज़
रेडियो सीलॉन पे बजता साज़.
दौड़कर लपका करते थे
अख़बार को,
दालान में गिरते ही
और छीन लेते थे,
अपना-अपना पन्ना
सब्जी वाला ही सुना देता था
शहर का सारा हाल
घर में नये सामान के आते ही 
छा जाता था उत्सव
और बाँट आते थे मिठाई
सबको उसका किस्सा सुनाकर.

यूँ तो बहुत दौड़-भाग थी तब भी
लेकिन फिर भी सुकून था कहीं
और अब ?
अब तो.....
मोबाइल ही जगाता है
सुबह-सुबह, एक निश्चित ध्वनि से
चिड़ियों की मधुर वाणी
घुट रही है बंद खिड़की के बाहर
दूध भी वसायुक्त, और वसामुक्त
हो चला है, पॅकेट का
पानी संरक्षित है, बोतलों में
टी. वी. दिखा देता है
कुछ अख़बार और कुछ 
बेकार की खबरें
मिठाई अब न बँटती न
खाई जाती हैं.

कुकर की बजती सीटी के साथ
होता है दिन का आगाज़
सब्जियों को काटते हुए
तय हो जाती है पूरी दिनचर्या
चलता है दिमाग़, एक साथ
न जाने कितनी जगहों पर
इस बीच घनघना उठता है,
कई बार फोन भी, जो
जीवन का सबसे अहं हिस्सा बन
थमा देता है, अपनी मर्ज़ी से
कभी उम्मीद, कभी मायूसी.

हाँ, चल तो रही है, 'ज़िंदगी'
उसी दिनचर्या से.
सूर्योदय भी वही है
और सूर्यास्त भी
दिखाई देती हैं, पौधों में
अब भी कलियाँ
फूल भी खिल रहे हैं
वही पहले की तरह
पर फिर भी कोई
बुझा-बुझा सा है
क्योंकि बदल गया है अब
इन सबके बीच का
'वो पहले सा समय'.

प्रीति 'अज्ञात'

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