Monday, July 29, 2013

Sach Yahi Hai ....

सच यही है... 
वो टूटी, बिखरी, चकनाचूर हुई और स्वत: ही समेट लिए, उसने अनगिनत फैले, सारे ही टुकड़े, जो छलनी थे, अपनों ही के अनवरत प्रहारों से.
फिर देखा, उस अनंत आकाश की ओर, जो आज बहुत ही भयावह सा लगा उसे, अट्टाहास लगा, उपहास बनाता हुआ उसके इस असीम प्रेम का. 'प्रेम', जो छलावा नही, 'शाश्वत सत्य' है, उसके विलीन से होते, इस निर्जीव जीवन का. इसका ना कोई ओर है, ना छोर ठहर सा गया है, आकर उम्र भर के लिए जैसे. जिसका आभास, किसी की उपस्थिति या अनुपस्थिति का मोहताज़ नही. ये व्यापक है, अथाह गहरा सागर की तरह. इसके मोती स्वरूप को पाने के लिए जाना ही होगा तुम्हें, अंतत: भीतर तक. पर यूँ, असमंजस में ना रहो, ना डरो, ठहरी नदी की इन हलचलों से ना रूको आज, किसी भी पीड़ा को थामे तो क्या हुआ जो मन उद्द्विग्न है किसी बात से, सभी हैं, बेचैन, परेशान, अपने-अपने हालात से ! तो, उठो, मुस्कुराओ, बाहें पसारो, और
मात्र इसके बाहरी स्वरूप को देखकर स्वीकार ही लो, अपना भी सच जो ठीक वैसा ही है, जैसा कि उसका. जाओ, मिलकर देखो, दोनों ही उस आसमान की तरफ जिसने अब भी संभाल के रखा है, तुम्हारे लिए अपनी मुट्ठी में एक-एक तारा ! प्रीति 'अज्ञात'

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