Sunday, December 30, 2018

प्रेम

उसके दूर चले जाने पर भी मैं 
रत्ती भर नाराज़ नहीं हो सकी उससे 
हाँ, उम्मीद और विश्वास से भरे आसमान में  
अपना एक सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा
छिटकता हुआ देखा मैंनें 
और यह भी जाना कि 
अपने-आप को किसी के लिए 
उम्र भर समर्पित कर देने के बावजूद
मैं शायद....उसके लिहाज़ से
एक उम्दा प्रेमिका के खाँचे में 
अब तक फिट नहीं बैठ पाई हूँ 
तब टूटना, बिखरना और 
अपनी बेबसी पर घंटों रोना
मेरे इसी दुःख के साथी बने  
उस पल मैं चीखना चाहती थी जोरों से 
फोड़ देना चाहती थी उन क़िस्मतों का माथा 
जिसने मेरे प्रेम को मुझसे छीनने की 
बेधड़क, नाजायज़ गुस्ताख़ी की थी 
पर महसूसा कि कोई किसी को 
यूँ ही तो नहीं छीन सकता 
जब तक जाने वाले के मन में भी
चहकते नए भाव और नई उम्मीदें
 न उपजी हों
जानती हूँ, समझती हूँ  
प्रेम जबरन नहीं होता
तब ही तो अब, किसी भिक्षुक की तरह 
बार-बार आवाज देकर 
नहीं पुकारूँगी उसे 
नहीं झूलूँगी किसी भँवर में
बार-बार सिद्ध करने को अपनी सार्थकता 
यूँ भी प्रेम कहाँ कभी किसी की उपस्थिति का
मोहताज़ हुआ करता है
- प्रीति 'अज्ञात'

Monday, December 10, 2018

इन दिनों,

इन दिनों,
दिन है जैसे सूरज की फैली बाँहें
और रात चाँदनी की चादर ओढ़े हुए 
उनके आगोश में मौन हो सिमट जाना 
स्मृतियाँ हैं चुपचाप बहती नदी 
और उदासी उसमें घुप्प से घुस गया
भारी नुकीला पत्थर 
बीता समय उस ऊँचे पहाड़ की चोटी के पीछे 
खोया एक खरगोश है 
जो लौटकर आ ही न पाया कभी
निराशा है स्याह काजल भरा आकाश
और आँसू दुःख के बादलों में धँसी
ओस की पहली बूँद है कोई 
जो सुबह के रेशमी तकिये पर 
रोशनी का स्नेहिल स्पर्श पाकर 
ढुलक जाती है अनायास
स्वप्न..है दमित इच्छाओं की आतिशबाज़ी
उम्मीद...अलादीन का खोया चिराग़
और 'सुख' पुरानी पुस्तक में मिला 
करारा पाँच रुपये का नोट
- प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, November 15, 2018

..........

उम्र के सिरहाने
कुछ ज़िंदा ख़्वाहिशें
रखीं थीं कभी 
गुज़रते वक़्त को झाँकती 
सिकुड़ती ख़्वाहिशों की बारादरी में
उम्र बढ़ती रही
और फिर यूँ भी हुआ
एक दिन अचानक 
कि सब कुछ...
...रीता ही ख़त्म हो गया
अब सिर्फ़ ख़ालिस रूह है
जो मरती नहीं 
दफ़न ख़्वाहिशें हैं
जो उमड़ती नहीं 
- प्रीति 'अज्ञात'

Sunday, September 30, 2018

पहचानती हूँ

चाल से, अंदाज़ से हर रंग इनका जानती हूँ 
रिश्तों के इन गिरगिटों को ख़ूब मैं पहचानती हूँ 

मंदिरो-मस्ज़िद में जाता जानकर मैं क्या करूँ 
आदमी दिल का भला हो इतना ही बस मानती हूँ 

लाल, केसरिया, हरे हों से मुझे मतलब नहीं 
झण्डा तो इक ही तिरंगा शान मेरी जानती हूँ 

ये अलग बस बात है कि बोलती अब कुछ नहीं 
लाख अच्छे का करो तुम ढोंग सब पहचानती हूँ 

क्या पता मैं कब मिलूँगी या मिलूँगी भी नहीं  
खोज में तेरी मग़र मैं खाक़ दर -दर छानती हूँ 

मेरे हाथों की लक़ीरें रोकती हैं अब मुझे 
टूटते तारे से जब कोई भी मन्नत माँगती हूँ 
- प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, September 20, 2018

चले जाने के बाद

कवि के चले जाने के बाद 
शेष रह जाते हैं उसके शब्द
मन के किसी कोने को कुरेदते हुए 
चिंघाड़ती हैं भावनाएँ 
कवि की बातें, मुलाक़ातें 
और उससे जुड़े किस्से 
शब्द बन भटकते हैं इधर-उधर  
जैसे पुष्प के मुरझाने पर 
झुककर उदास हो जाता है वृन्त
जैसे उमस भर-भर मौसम 
घोंटता है बादलों का गला 
जैसे प्रिय खिलौने के टूट जाने पर 
रूठ जाता है बच्चा 
या कि बेटे के शहर चले जाने पर 
गाँव में झुँझलाती फिरती है माँ
वैसे ही हाल में होते हैं 
कुछ बचे हुए लोग 
पर जैसे थकाहारा सूरज 
साँझ ढले उतर जाता है नदी में 
एक दिन अचानक वैसे ही
चला जाता है कवि भी 
हाँ, उसके शब्द नहीं मरते कभी 
वे जीवित हो उठते हैं प्रतिदिन 
खिलती अरुणिमा की तरह 
- प्रीति 'अज्ञात'
(Image: Gavin Trafford)

Tuesday, July 24, 2018

हे राम!

राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट 
जो बंदा मन की करे उसे पकड़कर कूट 
उसे पकड़कर कूट तू ऐसा मानवता शरमाये 
थर-थर बोलें लोग यही हाय नंबर न लग जाये

तुम स्वामी, तुम अन्तर्यामी ये तुमरा ही देस 
बाक़ी चोर, उचक्के ठहरे बदल-बदल कर भेस 
तुमको तुम्हीं मुबारक़, हाँ दिखलाओ अपनी शक्ति 
राम प्रकट होंगे जिस दिन बतलाना अपनी भक्ति

कहना उनके नाम पर क्या क्या न किया है तुमने 
अपनी ही माटी को छलकर रौंद दिया है तुमने
फिर रोना छाती पीट-पीट, दुःख दुनिया के तर जाएँगे
पर तुमरी गाथा तुमसे सुन वो जीते जी मर जाएँगे
- प्रीति 'अज्ञात'
#राम_का_नाम_बदनाम_न_करो  

रामराज्य

आसाराम करें आराम, जय श्री राम, जय श्री राम
राम-रहीम बिगाड़ें काम, जय श्री राम, जय श्री राम 
राधे माँ छलकते जाम, जय श्री राम, जय श्री राम
जेल भई अब चारों धाम, जय श्री राम, जय श्री राम 

मारा-कूटी, गिरे धड़ाम, जय श्री राम, जय श्री राम
बाढ़ में डूबे हाय राम, जय श्री राम, जय श्री राम
मुग़ल विदा सब बदले नाम, जय श्री राम, जय श्री राम
मंदिर-मस्ज़िद भये बदनाम, जय श्री राम, जय श्री राम
-प्रीति 'अज्ञात'
#रामराज्य #सहिष्णु_भारत 

Saturday, July 21, 2018

सब बढ़िया है

तुम्हारी हँसी 
जीवन की उस तस्वीर जैसी है 
जिसमें उम्र के तमाम अनुभव 
होठों पर जमकर खिलखिलाते हैं 
और फिर हँसते-हँसते अनायास ही 
मौन हो सूनी आँखों से 
एकटक देखते जाना 
दर्द की सारी परतों को 
जैसे जड़ से उधेड़कर रख देता है 
समय के साथ हम कितना कुछ सीख जाते हैं न!
मर-मर कर जीना 
या कि जीते जी मर जाना
स्वप्न को जीवित ही गाड़ 
इन आँखों का पत्थर हो जाना
और हँसते हुए दुनिया से हर रोज कहना 
सब बढ़िया है
- प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, July 4, 2018

प्रतीक्षा

मृत्यु एक शाश्वत सत्य है
जो घटित होते ही रोप देता है 
दुःख के तमाम बीज  
स्मृतियों की अनवरत आवाजाही के मध्यांतर में 
पनपती हैं चहकती सैकड़ों तस्वीरें
और किसी चलचित्र की तरह 
जीना होता है उन्हें मौन, स्थिर बैठकर

बादलों के उस पार से 
सुनाई देती है अब भी 
नन्हे क़दमों की आहट
तीर से चले आने की 
होती है सुखद अनुभूति किसी के
धप्प से लिपट जाने की 
आती है ध्वनि कि जैसे उसने 
पुकारा हो बिल्कुल अभी 
और ठीक तभी ही 
फैला हुआ सन्नाटा
सारे भ्रम को चकनाचूर कर  
किसी अनवरत नदी-सा 
प्रवाहित होने लगता है कोरों से

है कैसी विडम्बना
कितना क्रूर है ये नियम 
कि भीषण वेदना, अथाह दुःख के सागर में 
सारी संभावनाओं के समाप्त हो जाने पर भी 
रुकती नहीं समय की गति  
चलायमान रहता है जीवन 
ठीक वैसे ही 
जैसे कि हुआ करता था
किसी की उपस्थिति में

पर न जाने क्यूँ फिर भी 
उम्मीद की खिड़की पर 
बरबस टंग जाती हैं आँखें 
और प्रतीक्षा के द्वार 
अंत तक खुले रहते हैं....
 - प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, May 10, 2018

यूँ ही ...

चलो इस तरह भी जिया जाए 
ख़्वाब को साथ न लिया जाए 

ग़म की औक़ात कुछ नहीं रहती 
घूँट तबस्सुम से जो पिया जाए 

अपनी ख़ातिर ही जीना क्या जीना
ग़ैरों के लिए कुछ तो किया जाए

मुल्क़ से इश्क़ भी इबादत है 
क़र्ज़ इसका चुका दिया जाए 

गिला ज़माने से कब तक करना 
अपने ज़ख्मों को ख़ुद सिया जाए

नफ़रतों का कुछ नहीं हासिल 
चलो इंसान बन जिया जाए 
- © प्रीति 'अज्ञात'

Friday, May 4, 2018

Breast-cancer

मेरे कितने अपने चेहरे
जिन्हें लील लिया है तुमने 
और वो भी जिनकी उपस्थिति 
अब भी जीने की आस फूँकती है मुझमें 
हर बार ही गुजरी हूँ क़रीब से 
उनकी असहनीय पीड़ा में    
देखा है बेबस आँखों ने  
मातृत्व के झरने को कटते हुए 
जैसे कोई बहता हुआ सोता 
दूर कर दिया गया हो अचानक  
अपनी उद्गम-स्थली से 

तुम्हारी विशाल बहुगुणित कोशिकाओं का 
निवारण ही एकमात्र किस्सा नहीं है, विज्ञान का 
यह मांस-पेशियों को निर्ममता से कुरेदता
सम्पूर्ण जीवन-दर्शन है  
जिसके दर्द की शिराएँ नहीं होती
किसी एक हिस्से तक ही सीमित 
काले घने केशों का पतझड़ और 
उभारों का देह में ही 
धप्प-से विलुप्त हो जाना
तो बस......... 
बाहरी बातें भर हैं, पर 
दुःख के दरिया को भीतर तक
मसल-मसल घोंटती है यह प्रक्रिया

जाता है हाथ स्वत: ही उस विलीन भाग पर
हृदय बिलखता है चीख-चीखकर
और लाख ना-नुकुर के बाद भी
बंजर हुई भूमि पर 
सिलिकॉन की छोटी गद्दियाँ 
बना ही लेती हैं अपना आशियाना

यूँ भी होता है उसके बाद कभी कि 
रंगीन स्कार्फ़ की छाँव तले 
घुँघराले नन्हे बालों की आमद देख 
एक बहादुर स्त्री दर्पण में फिर मुस्कुराती है
सँभालने लगती है अपना बसेरा   
उम्मीद के मसनद पर टिका जीवन
कभी ठहरता, तो कभी चलता है अनवरत
इधर बच्चों की सपनीली दुनिया में 
अठखेलियाँ करता है चमचमाता भरोसा 
कि माँ अभी जीवित है!
- प्रीति 'अज्ञात'
#Breast-cancer 

Thursday, April 12, 2018

सुनो, लड़कियों!

सुनो, लड़कियों 
अब आ गया है उचित समय 
कि तुम पोंछ आँसू  
उठा लो शमशीरें 
और कर दो उसी वक़्त 
सर क़लम उसका 
जब कोई निग़ाह किसी बदबूदार नाले की
सड़ांध भर, घूरती रहती है तुम्हें
कर दो अंग-भंग उसका
जिसका घिनौना स्पर्श तुमसे
इस संस्कारी समाज में सम्मान से जीने के  
सारे अधिकार छीन लेता है 

वे अपनी निर्वस्त्रता में लिप्त अट्टहास करेंगे 
और साबित करना चाहेंगे
तुम्हारी हर कमजोरी
क्योंकि उनकी विकृत ग्रंथियों में 
यही भरा गया है कूट-कूटकर
कि वे मालिक हैं तुम्हारी देह के
ये सत्तालोलुप तो  तुम्हारे मन पर भी
करना चाहते हैं अतिक्रमण 
इसलिए वही तय करेंगे 
तुम्हारे कपड़ों की लम्बाई 
चाल की सभ्यता 
वाणी की मधुरता 
व्यवहार की शिष्टता 
और हँसने की प्रकृति
देखो, खुलकर न हँस देना कहीं 
निर्लज़्ज़ न क़रार कर दी जाओ 

सुनो, तुम निकल आओ इस
घुटन भरी खंदक से बाहर
कि इस संसार पर उतना ही अधिकार 
तुम्हारा भी तो है 
इससे पहले कि लुप्त हो जाए हमारी प्रजाति 
और मानवता, सहनशीलता, प्रेम
 मात्र क़िताबी बातें रह जाएँ
निकल आओ तुम 
कि आने वाली पीढ़ियों के लिए 
अब हमें ही कुछ करना होगा
ये जिम्मेदारी है हमारी 

करो कुछ ऐसा कि
वे घबराएँ रात को बाहर निकलने से 
कम्पन हो देह में उनकी 
काम पर अकेले जाने में 
यात्राएँ भयभीत कर दें उन्हें 
और चीख-चीखकर करने लगें वे 
ट्रेन में पुरुष डिब्बे की मांग
तो छुप जाएँ कभी 
अपने ही घर के बेसमेंट में
लुट जाने के भय से

संभव है कि इस प्रक्रिया में तुम 
चरित्रहीन घोषित कर दी जाओ 
पर न घबराना किसी लांछन से 
ओढ़ लेना उसे इक ढाल की तरह 
सुनो, मत रखो आशा किसी कृष्ण की  
पलटो इतिहास, सदियों से इस लड़ाई में 
तुम ही हारती रही हो सदैव 
आख़िर कब तक आग में कूदोगी? 
कितनी बार धरती में समाओगी? 
झूठे मान-सम्मान की ख़ातिर
कब तक अपनों के ही हाथों  
टुकड़ा-टुकड़ा कर दी जाओगी?

इसीलिए यही वो समय है 
जब बोलना आवश्यक है 
यही वो समय है 
जब तुम्हें मौन कर दिया जाएगा 
डरो मत, सहमो मत, छुपो मत
ठहरो मत, 
भय के बादल को चीरकर निकलो 
हाथ थामो, मिलकर चलो
सुनो, लड़कियों
आत्म-सम्मान की जंग लड़ो
अपनी आवाज़ से गुँजा दो ये सर जमीं
बहुत सह चुकीं तुम
चलो, बहुत हुआ अब 
उठो..... उठो,
उठो और   
...क्रांति का उद्घोष करो!
- प्रीति 'अज्ञात'

https://www.youtube.com/watch?v=o_m8AQ2c2bY&t=1s

Tuesday, April 10, 2018

ज़िंदगी, हर रोज़

रोज़ ही नाराज़ हुई फिरती हूँ 
रोज़ ही दिल से गले मिलती हूँ
रोज़ ही चीरती है ज़ख्म मेरे
रोज़ ही बैठकर मैं सिलती हूँ  

रोज़ ही भूलना चाहती हूँ इसे 
रोज़ ही यादों में इसकी धंसती हूँ 
रोज़ ही दिल ये डूबता है मेरा
रोज़ ही खुल के ख़ूब हँसती हूँ

रोज़ ही छोड़ने की कोशिश में 
रोज़ ही इश्क़ इसको करती हूँ
रोज़ ही जीती हूँ उम्मीदों में 
रोज़ ही टूटकर भी मरती हूँ 

रोज़ ही काटती है पंख मेरे 
रोज़ ही जोरों से ज़रा उड़ती हूँ
रोज़ ही तोड़ती है जी भरके 
रोज़ ही थोड़ा-थोड़ा जुड़ती हूँ  

रोज़ ही चुप्पी साधती हूँ कहीं 
रोज़ ही बेवजह भी बकती हूँ 
रोज़ ही सोचती आराम करूँ 
रोज़ ही चूरकर मैं थकती हूँ 

रोज़ ही जगती हूँ सूरज की तरह 
रोज़ ही साँझों को तनहा ढलती हूँ   
रोज़ ही शिक़वा इसी से होता है  
रोज़ ही इधर को लौट चलती हूँ 
- कॉपीराइट © प्रीति 'अज्ञात'

Saturday, April 7, 2018

इश्क़ बस देह भर ही नहीं होता जानां!

इश्क़ बस देह भर ही नहीं होता जानां 
ये जो एक थकान भरे दिन के ढलते-ढलते 
जब उसका हाथ थाम तुम कहते हो न 
सुनो, अब बैठ भी जाओ कुछ पल 
कितना काम करती हो दिन भर 
वही इश्क़ की पहली फुहार बन महकती है

किसी सुस्त रविवार की अलसाई सुबह की
अधखुली आँखों की इक मासूम करवट 
जब वो घड़ी देख अचानक उठ बैठती है घबराकर 
एन उसी वक़्त चाय का कप आगे सरकाकर तुम्हारा यूँ कहना 
लो, आज मेरे हाथों की चाय पीकर देखो 
ख़ुदा क़सम! इश्क़ की कहानी तभी पायदान चढ़ती है

मेहमानों के अचानक आने और उसकी हड़बड़ाहट के बीचों-बीच 
तुम्हारा झटपट सलाद तैयार कर
क्रॉकरी निकाल देना भी 
इश्क़िया अहसास का एक धड़कता पन्ना ही तो है

वो जब कहीं लौट जाने को उदास मन और भरी आँखों से
मुस्कान को होठों से सटाकर, चुपचाप लगी होती है पैकिंग में
उसी समय उसकी ज़रूरी चीज़ें पलंग पर रख आना
उसके कपड़ों को धूप में सुखाना या पलट आना 
तौलिये को भीगने से बचाने की सोच लिए
अपनी तौलिया थमा आना 
ये सारे भाव इश्क़ के अपठित गद्यांश हैं प्रिय

ट्रेन के सफ़र में हँसते हुए उसे विंडो सीट थमा देना 
या कि शरारती आँखों से बैग को बीच से हटा
हौले-से उसके और क़रीब खिसक आना
ये भी इस मुए इश्क़ की ही करामात है जानां

तुम्हें क्या पता कि किसी भीड़भाड़ भरे प्लेटफॉर्म या
वाहनों से पटी सड़क पर 
उसकी अंगुली को किसी बच्चे की तरह थाम लेना
कैसे सुरक्षा-कवच की तरह ढक लेता है उसे 
यही तो है इश्क़ का सबसे ख़ूबसूरत अंदाज़ ए बयां

आहिस्ता से उसके माथे को चूमना
कंधे पर सर टिका बैठना
उंगलियों में उंगलियाँ फंसा कुछ भी न बोलना 
या गोदी में यूँ ही सर रख लेट जाना 
एक ही प्लेट में साथ भोजन खाना 
उसके प्यारे पंछियों के लिए 
दाना-पानी रख आना 
उसके इर्दगिर्द यूँ ही गुनगुनाना 
तो कभी एकटक देख बेवज़ह मुस्कुराना 
ये सब और ऐसी कितनी ही ढेरों अदाएँ 
इश्क़ की किताब की अनगिनत,अनकही बातें हैं

पर जब भी ऐसा कुछ करो 
तो स्त्री की आँखों को जरूर पढ़ना 
और देखना इश्क़ की लहर को गुजरते हुए
खिलखिलाती, मचलती अदाओं को ठुनकते हुए
यूँ तुम तो जानते ही हो, पर फिर भी 
कहा है दोबारा तुमसे अभी 
इश्क़ बस देह भर ही नहीं होता जानां!
है न! 😍
- प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, April 4, 2018

बाबाजी का ठुल्लू

ताजा काव्य 

छोड़-छाड़ के मोह सग दुनिया दई थी त्याग 
पर का करिहें देस में मच गई इत्ती आग 
मच गई इत्ती आग के न रओ, काऊ को कछु मोल 
आये मंत्री भांजके, बाबा दुनिया है गई ढोल

हाय! दुनिया है गई ढोल तो फित्तो, आओ हमऊ बजाएँगे
मारा गला में डार के, चर्चा-चिंता करवे आयेंगे
तुम मुरख बस लड़त फिरो और करो नौकरिया खोज 
राजाजी के राज में हमरी तो है गई मौज

मिल गयो डीज़ल, नौकर चाकर, घूमन काजे भत्ता 
तुम टुकुर-टुकुर कत्ते रहियो हमको तो मिल गई सत्ता 
पढ़ लिखके कछु न होएगो, बस बनते रईयो उल्लू 
भौत चिरात थे पैले हमको, अब तुम ल्यो बाबाजी को ठुल्लू 
- कॉपीराइट © प्रीति 'अज्ञात'
Pic Credit: Google

Wednesday, January 31, 2018

ऋण

ऋण है हम पर 
पंछियों, हवाओं और 
तेज, तूफ़ानी बारिश का  
जिन्होंने बीज-बीज छितराकर,
बहाकर  
घने जंगल बसाए 
और हमने उन्हें उखाड़ 
पत्थरों के कई शहर बना लिए
इधर हम विकसित लोग 
अब तरसते हैं हवा-पानी को 
उधर हताश पंछी भटक रहे 
घोंसले की तलाश में 
जंगली जंतुओं के शहर तक चले आने में 
तुम्हें हैरत क्यों है भला?
प्रश्न यह है कि 
अतिक्रमण, किसने किया है किस पर
आह! देखती हूँ जब भी गगनचुम्बी इमारतें 
मेरे भीतर एक जंगल अचानक 
लहलहाकर गिर पड़ता है 
- प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, January 25, 2018

नेता और अफसर

जैसे ही नेता जी चीखे 
अफसर बोले, आया जी 
युग बीते हैं इन चरणों में
पर गले नहीं लगाया जी 

तुम जात-पांत के खेला में 
हाय हमको दद्दा भूल गए 
जान निछावर करके हारे 
कुछ भी न हमने पाया जी 

मां-बाबा के इकलौते थे 
और जी-जान से पढ़ते थे 
तुम लड़ते संसद में जैसे 
हम घर पर भी न करते थे 

अरे, राजा हो या प्यादा हो
पर भाषा की मर्यादा हो
मत भूलो सम्मान किसी का
शिक्षा ने सिखलाया जी

पर राजनीति की कीचड़ ऐसी 
अच्छा-बुरा बराबर है
जिसका, जितना खेल भयंकर 
वही हुआ कद्दावर है 

देशप्रेम की ख़ातिर हमने 
किस्सा ये समझाया जी 
पीर हिया की बाहर निकली 
मन को हल्का पाया जी  
 -प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, January 24, 2018

आश्वासन

सरकारें बनतीं-बिगड़तीं
गिरतीं- संभलतीं
पर उठकर कभी खड़ा ही न हो पाता
बेबस, लाचार आदमी
मुद्दों की धीमी-धीमी आँच पर 
दशकों से सिक रहीं
गुलाबी वादों की करारी रोटियाँ
समयानुसार उठती है फुँकनी
पहुँचती है मंदिर, मस्ज़िद, गुरुद्वारे तक 
कि लौ दिखती रहे
और आँतों से गलबहियाँ कर 
चिपकी रहे बुभुक्षा 

पर अब तक अटकी हुई 
आशाओं के शुष्क गले में  
आश्वासनों की सूखी सैकड़ों हड्डियाँ 
जिन्हें बारम्बार निगलने की कोशिश में 
धँसता जा रहा आदमी
उम्मीद की पसरी आँखें
अब भी चूल्हे पर
कि कभी तो परोसी जायेंगीं रोटियाँ

इधर निरीह, झुलसी
ग़रीबी का उदास चेहरा लिए
बुझती लकड़ियाँ
अन्न की प्रतीक्षा में
मिट्टी की चहारदीवारी में 
बेचैनी से बदलती हैं करवटें  
कि देखें क्या निकलता है पहले
गले की हड्डी 
या आदमी का दम  
- प्रीति अज्ञात 

Friday, January 19, 2018

इश्क़

इश्क़, जैसे कड़कड़ाती सर्दी में
खिली-खिली धूप
और रजाई में कुटर-कुटर करती 
मूंगफली

इश्क़, जैसे सुबह
आँगन में पसरा हरसिंगार
और खुली खिड़की से झाँकता
झूलता-इठलाता सूरजमुखी

इश्क़, जैसे तपती गर्मी में
अनायास बहती शीतल हवा 
और बारिशों में घुलती   
सौंधी मिट्टी की ख़ुश्बू 

इश्क़, जैसे उबलती चाय से 
महकते अदरक-तुलसी
या कि बर्फ़ मौसम में 
धीमी-धीमी सुलगती सिगड़ी 

इश्क़, पंछियों का कलरव 
तितलियों का चटख़ रंग
हरित पत्तियों से लिपटा मोती
और नन्हे बच्चों का हुड़दंग 
 
इश्क़, जैसे एक अदद ज़िंदग़ी में 
क़बूल हुई कोई दुआ 
इश्क़ मैं, इश्क़ तुम  
इश्क़ से ही तो जग रोशन हुआ  
- प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, January 18, 2018

चिट्ठियाँ

आदमी को आदमी से मिलाती थीं चिट्ठियाँ 
कभी तोड़तीं तो जोड़ भी जाती थीं चिट्ठियाँ

जो दिल कहे वो हाल बताती थीं टूटकर 
हर राज़ भी सीने में छुपाती थीं चिट्ठियाँ 

कभी ग़म के आँसुओं में भिगोया रुला दिया 
तो दोस्त बन गले भी लगाती थीं चिट्ठियाँ 

ननिहाल या ददिहाल हो, जाने का वक़्त था
छुट्टी के सारे किस्से सुनाती थीं चिट्ठियाँ

होली हो, दीवाली या ईद, पर्व कोई भी
राखी के धागों-सी बंधी, आती थीं चिट्ठियाँ

जो मुस्कुराता प्रेम से देता था हर बधाई  
वो डाकिया कहाँ गया, लाता था चिट्ठियाँ 
-प्रीति 'अज्ञात'

Friday, January 5, 2018

भारतीय हैं हम (?)

भारतीय हैं हम (?)

लड़ते रहे सदियों से धर्म-जाति के नाम पर
और किया बँटवारा अपनी ही पावन धरा का
पीते रहे लहू, आस्था को घोलकर
बढ़ता रहा कारवाँ इस तरह स्वयं पर ही ज़ुल्म का
चुन दिए संस्कार मजबूती से अपनी-अपनी दीवारों में
जब कुछ न बचा तो भगवान की बारी आई 
आह! हम मूर्ख से सोचा करें
किस अलौकिक शक्ति ने ये दुनिया बनाई!

अरे, भूल गये हो तुम
अभी तो कितने हिस्से होने हैं बाक़ी
जाओ खेतों में जाकर, खोदो माटी
उगाओ सब्ज़ियाँ अपनी ही जाति की क्यारियों में
कर दो प्रारंभ एक नई कुटिल परिपाटी
नियम है कि तोड़ सकोगे फल केवल अपनी ही क़ौम के पेड़ों से
बस उन्हें तुम तक ही प्राणवायु का पहुँचना सिखा दो
ऩफरत की बेलों को बढ़ाने के लिए
सींचना होगा उन्हें फलने-फूलने तक
सो, एक डगर अपने-अपने धर्म की उन तक भी पहुँचा दो
उलीच लेना हर नदी का नीर, अपनी ही ज़हरीली नहर में वहीं
दंभ से चमकता चेहरा लिए सींचना अपनी वनस्पति
संभालना किसी और ईश्वर का जल न मिल जाए कहीं!

निकालो फ़रमान, नहीं चलेगी कोई मनमर्ज़ी बहती उन्मुक्त पवन की
बहना होगा उसे भी धर्म और जाति के हिसाब से
देखते हैं, कौन जाति पाती है, कितनी 'हवा'
तुम भी जाँचते रहना उसकी गति अपनी-अपनी शर्म की क़िताब से!
फिर चीर देना मिलकर बेरहमी से, आसमाँ का पूरा जिगर
और निकाल लेना अपने-अपने हिस्से का थोड़ा बादल
कि तुम पर गिरे सिर्फ़ तुम्हारे ही हिस्से की बारिश
मल लो कालिख अम्बर से माँगकर,
या चुरा लो घटाओं का घना काजल!
सुनो, आते हुए सूरज को भी कहते आना
रोशनी की इक-इक किरण बँटेगी अब
हाय, दुर्भाग्य तेरे सीने पर जड़े सितारों का बंदर-बाँट 
ए-चाँद न इतरा, परखच्चे तेरे भी उड़ेंगे सब!

हे पक्षियों ! तुम भी सुन लो कान खोलकर 
तय होगी हर मुंडेर, तुम्हें चुन-चुनकर चहकना होगा
न उतर जाना किसी और के आँगन में 
तुम्हें अपने ही अंगारों पर दहकना होगा
मसले जाओगे सब, तितलियों की तरह
जो लापरवाह-सी, बाग़ में इठलाईं थीं उस दिन
बिखरेगी हर आशा, चीखेंगीं क़ातर उम्मीदें
यूँ चलेगा समय का पहिया, उल्टा प्रतिदिन!

क्या सोचते हो, उठो और आगे बढ़कर
फाँक लो अपने हिस्से का आसमाँ 
निगल लो अपनी ही ज़मीं
पी लो अपनी नदिया की ठंडक
गटक कर अपनी-अपनी रोशनी
अब ओढ़ लो आस्तिकता का नक़ाब
और खड़े हो जाओ
बेशर्मी से अपनी-अपनी गर्दन उठाकर
छुपा देना हर दर्पण, कि वो कहीं टूट ही न जाए घबराकर
फिर कह सको, तो समवेत स्वर में ज़रूर कहना
'हम एक हैं' और 
'मेरा भारत महान'
वाह, महान भारत की महान संतान!
जय-जय-जय हिन्दुस्तान!
© प्रीति 'अज्ञात'

* 2002 की यह रचना, जो कविता तो नहीं है बस क्षुब्धता, निराशा, क्रोध और दुःख से उपजे शब्द भर हैं. कभी-कभी लगने लगता है कि हम समाज और परिस्थितियों के बदलने की कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर बैठते हैं. आशावादी होना जितना अच्छा है, उससे कहीं ज्यादा बुरा है आशाओं का धराशायी होना. शायद हम सब यही दृश्य देखते हुए ही एक दिन चुपचाप गुजर जायेंगे.

Thursday, January 4, 2018

पुस्तक का मनोविज्ञान - 1

पुस्तक का मनोविज्ञान - 1

पुस्तक से जुड़ी विशेष और सच्ची बात यह है कि प्रत्येक लेखक चाहता है कि उसकी पुस्तक न केवल प्रतिष्ठित साहित्यकारों द्वारा पढ़ी जाए बल्कि वे उस पर एक सार्थक प्रतिक्रिया भी अवश्य दें. संभवतः अपनी कृति के प्रति यह मोह ही उसे उन तक अपनी पुस्तकें पहुंचाने के लिए विवश कर देता है क्योंकि वह यह भी समझता है कि बिना नाम / जान-पहचान /प्रकाशक के कहे बिना नामी लोग उसकी पुस्तक खरीदने का सोचेंगे भी नहीं! यद्यपि भेंट की गई पुस्तकें भी प्राप्ति की सूचना से वंचित रह जाती हैं और लेखक संकोचवश मौन धारण कर लेता है. लेकिन अगली बार के लिए वह एक पक्का सबक़ सीख लेता है. यहाँ यह स्वीकार कर लेना भी बेहद आवश्यक है कि एक-दो प्रतिशत ऐसे लोग भी हैं जो इन खेमेबाज़ियों और 'तू मुझे क़बूल, मैं तुझे क़बूल' की प्रथा से दूर रहकर सतत निष्ठा एवं समर्पण से कार्य कर रहे हैं. इनका हार्दिक अभिनन्दन एवं धन्यवाद.

देखने वाली बात यह भी है कि इन वरिष्ठों में से कुछ यह भी चाहते हैं कि आप उनकी पुस्तकें खरीदें, पढ़ें और शीघ्रातिशीघ्र उन पर अपनी प्रतिक्रिया भी दें ही. लगे हाथों प्रचार भी करते जाएँ.
अब सबसे मज़ेदार बात यह है कि वे लोग (मासूम/स्वार्थी दोनों) जो इनके लिए ये सब कुछ करते आए हैं (कभी दिल से कभी जबरन), उनकी पुस्तकों पर 100 रुपए खर्च करना भी इन्हें जंचता नहीं लेकिन ये अपनी पुस्तक के लिए उनसे वही उम्मीद दोबारा रखना बिल्कुल नहीं भूलते.

MORAL-1: प्रतिक्रिया के लिए किसी से अपेक्षा न रखें. आपके पाठक और सच्चे मित्र सदैव आपके साथ रहते ही हैं. 
MORAL-2: पुस्तक मेले में जाएँ तो पुस्तकें खरीदें. उपहार की आशा न रखें. लेखक, पहले से ही प्रकाशक और इस दुनिया से निराश बैठा है. उस पर आप भी....! 
- प्रीति 'अज्ञात'
#विश्व_पुस्तक_मेला 

जी, साब जी

जैसे ही नेता जी चीखे 
अफसर बोले आया जी 
युग बीते हैं इन चरणों में
पर गले नहीं लगाया जी 

तुम जात-पांत के खेला में 
हाय हमको दद्दा भूल गए 
जान निछावर करके हारे 
कुछ भी न हमने पाया जी 

हम मां-बाबा के इकलौते थे 
और जी-जान से पढ़ते थे 
तुम लड़ते संसद में जैसे 
वैसे घर पर भी न करते थे 

अरे, राजा हो या प्यादा हो
पर भाषा की मर्यादा हो
मत भूलो सम्मान किसी का
शिक्षा ने सिखलाया जी

पर राजनीति की कीचड़ ऐसी 
अच्छा-बुरा बराबर है
जिसका, जितना खेल भयंकर 
वही हुआ कद्दावर है 

देशप्रेम की ख़ातिर हमने 
किस्सा ये समझाया जी 
पीर हिया की बाहर निकली 
मन को हल्का पाया जी  
 - © प्रीति 'अज्ञात'