Tuesday, April 10, 2018

ज़िंदगी, हर रोज़

रोज़ ही नाराज़ हुई फिरती हूँ 
रोज़ ही दिल से गले मिलती हूँ
रोज़ ही चीरती है ज़ख्म मेरे
रोज़ ही बैठकर मैं सिलती हूँ  

रोज़ ही भूलना चाहती हूँ इसे 
रोज़ ही यादों में इसकी धंसती हूँ 
रोज़ ही दिल ये डूबता है मेरा
रोज़ ही खुल के ख़ूब हँसती हूँ

रोज़ ही छोड़ने की कोशिश में 
रोज़ ही इश्क़ इसको करती हूँ
रोज़ ही जीती हूँ उम्मीदों में 
रोज़ ही टूटकर भी मरती हूँ 

रोज़ ही काटती है पंख मेरे 
रोज़ ही जोरों से ज़रा उड़ती हूँ
रोज़ ही तोड़ती है जी भरके 
रोज़ ही थोड़ा-थोड़ा जुड़ती हूँ  

रोज़ ही चुप्पी साधती हूँ कहीं 
रोज़ ही बेवजह भी बकती हूँ 
रोज़ ही सोचती आराम करूँ 
रोज़ ही चूरकर मैं थकती हूँ 

रोज़ ही जगती हूँ सूरज की तरह 
रोज़ ही साँझों को तनहा ढलती हूँ   
रोज़ ही शिक़वा इसी से होता है  
रोज़ ही इधर को लौट चलती हूँ 
- कॉपीराइट © प्रीति 'अज्ञात'

No comments:

Post a Comment