इन दिनों,
दिन है जैसे सूरज की फैली बाँहें
और रात चाँदनी की चादर ओढ़े हुए
उनके आगोश में मौन हो सिमट जाना
स्मृतियाँ हैं चुपचाप बहती नदी
और उदासी उसमें घुप्प से घुस गया
भारी नुकीला पत्थर
बीता समय उस ऊँचे पहाड़ की चोटी के पीछे
खोया एक खरगोश है
जो लौटकर आ ही न पाया कभी
निराशा है स्याह काजल भरा आकाश
और आँसू दुःख के बादलों में धँसी
ओस की पहली बूँद है कोई
जो सुबह के रेशमी तकिये पर
रोशनी का स्नेहिल स्पर्श पाकर
ढुलक जाती है अनायास
स्वप्न..है दमित इच्छाओं की आतिशबाज़ी
उम्मीद...अलादीन का खोया चिराग़
और 'सुख' पुरानी पुस्तक में मिला
करारा पाँच रुपये का नोट
- प्रीति 'अज्ञात'
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
३० मार्च २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सुंदर लेखन
ReplyDeleteवाह!बेहतरीन!!
ReplyDeleteवाह बहुत खूब!!
ReplyDeleteबहुत खूब .. ,सादर नमन आपको
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