Wednesday, July 4, 2018

प्रतीक्षा

मृत्यु एक शाश्वत सत्य है
जो घटित होते ही रोप देता है 
दुःख के तमाम बीज  
स्मृतियों की अनवरत आवाजाही के मध्यांतर में 
पनपती हैं चहकती सैकड़ों तस्वीरें
और किसी चलचित्र की तरह 
जीना होता है उन्हें मौन, स्थिर बैठकर

बादलों के उस पार से 
सुनाई देती है अब भी 
नन्हे क़दमों की आहट
तीर से चले आने की 
होती है सुखद अनुभूति किसी के
धप्प से लिपट जाने की 
आती है ध्वनि कि जैसे उसने 
पुकारा हो बिल्कुल अभी 
और ठीक तभी ही 
फैला हुआ सन्नाटा
सारे भ्रम को चकनाचूर कर  
किसी अनवरत नदी-सा 
प्रवाहित होने लगता है कोरों से

है कैसी विडम्बना
कितना क्रूर है ये नियम 
कि भीषण वेदना, अथाह दुःख के सागर में 
सारी संभावनाओं के समाप्त हो जाने पर भी 
रुकती नहीं समय की गति  
चलायमान रहता है जीवन 
ठीक वैसे ही 
जैसे कि हुआ करता था
किसी की उपस्थिति में

पर न जाने क्यूँ फिर भी 
उम्मीद की खिड़की पर 
बरबस टंग जाती हैं आँखें 
और प्रतीक्षा के द्वार 
अंत तक खुले रहते हैं....
 - प्रीति 'अज्ञात'

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