Friday, June 6, 2014

प्रतिरोध

नहीं महसूस होता उसे कि
कहाँ ले जाया गया और कौन थे 
उस तन्हा सफ़र के साथी
कितनी उदासियाँ असली थीं
और कितने चेहरे आभासी
कितने आगंतुक परेशान थे
देरी की कथा सुनाकर
और कितने उठ गये बीच में ही
कार्य की व्यथा बताकर

नहीं समझ पाती वो आज भी, कि
उम्र भर बंधनों से बँधी रही जो
क्यूँ बाँधा गया है उसे और भी कसकर
क्यूँ न दिया अब तलक उसे किसी ने
उसका पसंदीदा वो लाल वाला फूल चुनकर
रंग भी देखो ओढ़ा दिया वही फीका-सा
जो कभी पहना था उसने सुबककर
ये कैसी विवशता है जाने ! कि
न सीखा तैरना, पर बह जाती है
घबराती थी लौ से जो, अब जल जाती है
सहमी गहरे अंधेरों से, गड्ढों में सहसा उतर जाती है

नही करती इस बार कोई भी सवाल-जवाब
और मौन हो स्वत: कूच कर जाती है
थक चुकी है वो इस जीवन-संघर्ष से
सो बँध गई पाषाण हो एक और बेड़ी समझ
पसंद-नापसंद पहले भी किसने पूछी उसकी ?
बह जाती हैं अपने ही आँसुओं की नदी में
जलती है भीतर के ज़िंदा सवालों की तरह
अंधेरा ज़रूर अपना-सा ही लगता होगा उसे
इसीलिए ही तो, हाँ इसीलिए ही 
'लाशें' कभी प्रतिरोध नहीं करतीं !

प्रीति 'अज्ञात'

2 comments:

  1. बदलते समय ने इन 'लाशों 'को स्फुरण दी है ..अब वह समय भी दूर नहीं जब इनमे पूरी गति भी आयेगी. परिवर्तन तो ज़रूर दिख रहा है हर ओर. सुन्दर रचना.

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    1. धन्यवाद ! जी, परिवर्तन की एक हल्की-सी बयार तो नज़र आने ही लगी है !

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