Monday, June 16, 2014

ठूंठ

यादों की टहनियों पर
नन्ही-सी कुछ कोंपलें
कैसे पनप उठीं थीं
ठंडी हवा की गोद में
सर रखे, पीती हुईं नमीं
पाया नव-जीवन
उस स्नेहिल स्पर्श से
जैसे थक गईं हों
उस भूरे चोले के अंदर
तभी तो खिलखिलाकर
खोल दीं सब खिड़कियाँ 
और झट-से सर निकाल
ताकने लगीं दुनिया.

कितना सुंदर था सब
वो पत्तों का हरा होना
पर्णहरित की संगत में
फूटे कितने अंकुर
निकलने लगीं उचककर
उम्मीदों की अनगिनत शाखाएँ
झूमी हर डाली
फूलों का खिलना अब तय जो था
पर ये किसका प्रकोप ?
कि बदला मौसम ने रुख़ 
बदल गई रंगत सारी
शुष्क हुईं शाखाएँ
मुरझा गईं वो कोंपलें
काँपने लगी हर डाली
कुम्हला गये सब पत्ते
न खिल सका इक भी पुष्प.

उष्णता ने सोख लिया सब कुछ
लील ली नर्मी सारी
हर उदास शाम को
तन्हा दिखाई देता है
बस एक बूढ़ा ठूंठ
बेशर्मी से अब भी ज़मीन में
गढ़ा हुआ
न जाने किसके
इंतज़ार में...!

प्रीति 'अज्ञात'

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