चुपचाप खड़ा हिमालय
सुन रहा आर्तनाद
गले लिपट बिलख रही
टूटती उम्मीदों का
स्तब्ध है मौन
गूँज रहा सन्नाटा
छलनी हर हृदय.
अवाक आसमान,
नि:शब्द हो सिसकता
सर झुकाए तलाश रहा
अपने ही प्रतिबिंब में
डूबे हुए वो जीवन.
कुछ मन अब भी चीख रहे
अस्वीकृति में इस निर्मम सत्य की.
निर्जीव पाषाण से लिपटकर कहीं
इक लौ अब भी टिमटिमाती है.
पर ये नदी है कि
थमती ही नहीं
बह रहे कितने निर्दोष सपने
धरती के गर्भ में
टूटा बाँध सब्र का
पीड़ा की परिधि के भीतर ही
उठेंगी सर्प-सी लहरें
सारी सीमाओं को लाँघकर
बढ़ता रहेगा व्यास
बहती रहेगी उम्र-भर
इक और नदी दर्द की !
- प्रीति 'अज्ञात'
वेदना को बहुत अच्छी अभिव्यक्ति दी है आपने. दुःख यही होता है कि हादसे पर हादसे होते चले जाते हैं और प्रशाशन कोई सबक नहीं ले पाता है.
ReplyDeleteशुक्रिया, निहार जी !
Delete...प्रशासन ही दुशासन बन गया है :(