Sunday, June 15, 2014

'मैं' और 'तुम'

'मैं' और 'तुम'
'हम' न बन सके
घुलता ही रहा
ढलता चला गया
मेरा वजूद
'तुम' में
होती रही दूर
अपने-आप से
कि पा सकूँ खुद को
समझ ही न सकी
मेरे हर बढ़ते क़दम
तुम्हें और भी
पीछे ले जा रहे हैं
जहाँ से देख सकते हो 'तुम'
अनगिनत 'मैं'
पर मुझे अब भी दिखते हो
सिर्फ़ एक 'तुम'

ठिठककर चाहा मैंनें
क्यूँ न अब 'तुम' भी 
चलो थोड़ा, मेरी तरफ
बस यही ग़लती हुई मेरी
क्योंकि 'तुम' तो वहीं थे
बस देखा किए थे
मेरा बढ़ना
लेते गये परीक्षा
खींचते जा रहे थे
न जाने कितनी रेखाएँ
और मैं अबाध गति से
चली ही आ रही थी
बेझिझक, बेपरवाह-सी

सो, लेना ही पड़ा तुम्हें फ़ैसला
चैन से जीने का
देखो न, अब सब कुछ 
कितना सुंदर हो गया है
तुम्हारे जीवन में
कोई काली छाया
अब मंडराती ही नहीं
खुश हूँ, देखकर इस पुष्प के
आसपास उड़ने लगीं 
नये ख्वाबों की कुछ तितलियाँ 

और आज जहाँ 'मैं' हूँ
वहाँ से 'तुम' तो
कब के चले गये थे
'हम' होना यूँ भी 
मुमकिन न था
'तुम', 'तुम' ही रहे
और 'मैं' ख़त्म हो गई
तुम्हें पाने की ज़िद में
'तुममें' ही कहीं सिमटकर !

- प्रीति 'अज्ञात'

2 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर....
    बेहद गहन अभिव्यक्ति....

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  2. शुक्रिया, संजय जी !

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