Friday, June 27, 2014

बुरबक !

'जीवन' एक सच
या 'मृत्यु' ही वास्तविकता ?
कितने स्वप्न देख लिया करता है 
ये पागल मन
एक ही जनम में
और फिर रोया करता है हरदम
बुक्का फाड़ के
झुंझलाता है, सर पीट-पीटकर
और बाकी वक़्त गुज़ार देता है
उनके पूरे न होने के मलाल में.

क्यूँ न मान ही लिया जाए
ये सर्वविदित कथन
'जो अपना है वो अपना ही रहेगा
और जो न हो सका, वो अपना था ही नहीं'
आँसू टपका-टपकाकर रोने से क्या फायदा
किसके पास है इतना फालतू वक़्त
कि आकर संभाले तुम्हें
और पोंछ डाले सारे आँसू
तुम नादां तो नहीं !
फिर काहे का तमाशा और
काहे की ज़िंदगी,
बुरबक !

चलो, बहुत हुआ
अब मुँह धो लो
मुस्कुराओ, यही बिकता है
दुनिया के बाज़ार में
खाँमखाँ ढूँढते हो मंज़िलें
एक पूर्व-निर्धारित लक्ष्य की
आह ! मृत्यु ही तो अंतिम पड़ाव है
हर जीवन का
तुम बुनते रहो
गुनते रहो
चाहे अनगिनत सपने
जल जाएँगे सब
भकभका के
एक साथ ही
हाँ, तुम्हारे ही इस
नश्वर शरीर के साथ !

- प्रीति 'अज्ञात'

4 comments:

  1. सच प्रीति, मृत्यु ही ध्रुव सत्य है और है अंतिम विश्राम स्थल -भावपूर्ण

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    1. शुक्रिया, अरविंद जी !

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