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Friday, November 9, 2018
Sunday, September 30, 2018
पहचानती हूँ
चाल से, अंदाज़ से हर रंग इनका जानती हूँ
रिश्तों के इन गिरगिटों को ख़ूब मैं पहचानती हूँ
मंदिरो-मस्ज़िद में जाता जानकर मैं क्या करूँ
आदमी दिल का भला हो इतना ही बस मानती हूँ
लाल, केसरिया, हरे हों से मुझे मतलब नहीं
झण्डा तो इक ही तिरंगा शान मेरी जानती हूँ
ये अलग बस बात है कि बोलती अब कुछ नहीं
लाख अच्छे का करो तुम ढोंग सब पहचानती हूँ
क्या पता मैं कब मिलूँगी या मिलूँगी भी नहीं
खोज में तेरी मग़र मैं खाक़ दर -दर छानती हूँ
मेरे हाथों की लक़ीरें रोकती हैं अब मुझे
टूटते तारे से जब कोई भी मन्नत माँगती हूँ
- प्रीति 'अज्ञात'
रिश्तों के इन गिरगिटों को ख़ूब मैं पहचानती हूँ
मंदिरो-मस्ज़िद में जाता जानकर मैं क्या करूँ
आदमी दिल का भला हो इतना ही बस मानती हूँ
लाल, केसरिया, हरे हों से मुझे मतलब नहीं
झण्डा तो इक ही तिरंगा शान मेरी जानती हूँ
ये अलग बस बात है कि बोलती अब कुछ नहीं
लाख अच्छे का करो तुम ढोंग सब पहचानती हूँ
क्या पता मैं कब मिलूँगी या मिलूँगी भी नहीं
खोज में तेरी मग़र मैं खाक़ दर -दर छानती हूँ
मेरे हाथों की लक़ीरें रोकती हैं अब मुझे
टूटते तारे से जब कोई भी मन्नत माँगती हूँ
- प्रीति 'अज्ञात'
Thursday, September 20, 2018
चले जाने के बाद
कवि के चले जाने के बाद
शेष रह जाते हैं उसके शब्द
मन के किसी कोने को कुरेदते हुए
चिंघाड़ती हैं भावनाएँ
कवि की बातें, मुलाक़ातें
और उससे जुड़े किस्से
शब्द बन भटकते हैं इधर-उधर
जैसे पुष्प के मुरझाने पर
झुककर उदास हो जाता है वृन्त
जैसे उमस भर-भर मौसम
घोंटता है बादलों का गला
जैसे प्रिय खिलौने के टूट जाने पर
रूठ जाता है बच्चा
या कि बेटे के शहर चले जाने पर
गाँव में झुँझलाती फिरती है माँ
वैसे ही हाल में होते हैं
कुछ बचे हुए लोग
पर जैसे थकाहारा सूरज
साँझ ढले उतर जाता है नदी में
एक दिन अचानक वैसे ही
चला जाता है कवि भी
हाँ, उसके शब्द नहीं मरते कभी
वे जीवित हो उठते हैं प्रतिदिन
खिलती अरुणिमा की तरह
- प्रीति 'अज्ञात'
(Image: Gavin Trafford)
शेष रह जाते हैं उसके शब्द
मन के किसी कोने को कुरेदते हुए
चिंघाड़ती हैं भावनाएँ
कवि की बातें, मुलाक़ातें
और उससे जुड़े किस्से
शब्द बन भटकते हैं इधर-उधर
जैसे पुष्प के मुरझाने पर
झुककर उदास हो जाता है वृन्त
जैसे उमस भर-भर मौसम
घोंटता है बादलों का गला
जैसे प्रिय खिलौने के टूट जाने पर
रूठ जाता है बच्चा
या कि बेटे के शहर चले जाने पर
गाँव में झुँझलाती फिरती है माँ
वैसे ही हाल में होते हैं
कुछ बचे हुए लोग
पर जैसे थकाहारा सूरज
साँझ ढले उतर जाता है नदी में
एक दिन अचानक वैसे ही
चला जाता है कवि भी
हाँ, उसके शब्द नहीं मरते कभी
वे जीवित हो उठते हैं प्रतिदिन
खिलती अरुणिमा की तरह
- प्रीति 'अज्ञात'
(Image: Gavin Trafford)
Tuesday, July 24, 2018
हे राम!
राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट
जो बंदा मन की करे उसे पकड़कर कूट
उसे पकड़कर कूट तू ऐसा मानवता शरमाये
थर-थर बोलें लोग यही हाय नंबर न लग जाये
तुम स्वामी, तुम अन्तर्यामी ये तुमरा ही देस
बाक़ी चोर, उचक्के ठहरे बदल-बदल कर भेस
तुमको तुम्हीं मुबारक़, हाँ दिखलाओ अपनी शक्ति
राम प्रकट होंगे जिस दिन बतलाना अपनी भक्ति
कहना उनके नाम पर क्या क्या न किया है तुमने
अपनी ही माटी को छलकर रौंद दिया है तुमने
फिर रोना छाती पीट-पीट, दुःख दुनिया के तर जाएँगे
पर तुमरी गाथा तुमसे सुन वो जीते जी मर जाएँगे
- प्रीति 'अज्ञात'
#राम_का_नाम_बदनाम_न_करो
जो बंदा मन की करे उसे पकड़कर कूट
उसे पकड़कर कूट तू ऐसा मानवता शरमाये
थर-थर बोलें लोग यही हाय नंबर न लग जाये
तुम स्वामी, तुम अन्तर्यामी ये तुमरा ही देस
बाक़ी चोर, उचक्के ठहरे बदल-बदल कर भेस
तुमको तुम्हीं मुबारक़, हाँ दिखलाओ अपनी शक्ति
राम प्रकट होंगे जिस दिन बतलाना अपनी भक्ति
कहना उनके नाम पर क्या क्या न किया है तुमने
अपनी ही माटी को छलकर रौंद दिया है तुमने
फिर रोना छाती पीट-पीट, दुःख दुनिया के तर जाएँगे
पर तुमरी गाथा तुमसे सुन वो जीते जी मर जाएँगे
- प्रीति 'अज्ञात'
#राम_का_नाम_बदनाम_न_करो
रामराज्य
आसाराम करें आराम, जय श्री राम, जय श्री राम
राम-रहीम बिगाड़ें काम, जय श्री राम, जय श्री राम
राधे माँ छलकते जाम, जय श्री राम, जय श्री राम
जेल भई अब चारों धाम, जय श्री राम, जय श्री राम
मारा-कूटी, गिरे धड़ाम, जय श्री राम, जय श्री राम
बाढ़ में डूबे हाय राम, जय श्री राम, जय श्री राम
मुग़ल विदा सब बदले नाम, जय श्री राम, जय श्री राम
मंदिर-मस्ज़िद भये बदनाम, जय श्री राम, जय श्री राम
-प्रीति 'अज्ञात'
#रामराज्य #सहिष्णु_भारत
राम-रहीम बिगाड़ें काम, जय श्री राम, जय श्री राम
राधे माँ छलकते जाम, जय श्री राम, जय श्री राम
जेल भई अब चारों धाम, जय श्री राम, जय श्री राम
मारा-कूटी, गिरे धड़ाम, जय श्री राम, जय श्री राम
बाढ़ में डूबे हाय राम, जय श्री राम, जय श्री राम
मुग़ल विदा सब बदले नाम, जय श्री राम, जय श्री राम
मंदिर-मस्ज़िद भये बदनाम, जय श्री राम, जय श्री राम
-प्रीति 'अज्ञात'
#रामराज्य #सहिष्णु_भारत
Saturday, July 21, 2018
सब बढ़िया है
तुम्हारी हँसी
जीवन की उस तस्वीर जैसी है
जिसमें उम्र के तमाम अनुभव
होठों पर जमकर खिलखिलाते हैं
और फिर हँसते-हँसते अनायास ही
मौन हो सूनी आँखों से
एकटक देखते जाना
दर्द की सारी परतों को
जैसे जड़ से उधेड़कर रख देता है
समय के साथ हम कितना कुछ सीख जाते हैं न!
मर-मर कर जीना
या कि जीते जी मर जाना
स्वप्न को जीवित ही गाड़
इन आँखों का पत्थर हो जाना
और हँसते हुए दुनिया से हर रोज कहना
सब बढ़िया है
- प्रीति 'अज्ञात'
जीवन की उस तस्वीर जैसी है
जिसमें उम्र के तमाम अनुभव
होठों पर जमकर खिलखिलाते हैं
और फिर हँसते-हँसते अनायास ही
मौन हो सूनी आँखों से
एकटक देखते जाना
दर्द की सारी परतों को
जैसे जड़ से उधेड़कर रख देता है
समय के साथ हम कितना कुछ सीख जाते हैं न!
मर-मर कर जीना
या कि जीते जी मर जाना
स्वप्न को जीवित ही गाड़
इन आँखों का पत्थर हो जाना
और हँसते हुए दुनिया से हर रोज कहना
सब बढ़िया है
- प्रीति 'अज्ञात'
Wednesday, July 4, 2018
प्रतीक्षा
मृत्यु एक शाश्वत सत्य है
जो घटित होते ही रोप देता है
दुःख के तमाम बीज
स्मृतियों की अनवरत आवाजाही के मध्यांतर में
पनपती हैं चहकती सैकड़ों तस्वीरें
और किसी चलचित्र की तरह
जीना होता है उन्हें मौन, स्थिर बैठकर
बादलों के उस पार से
सुनाई देती है अब भी
नन्हे क़दमों की आहट
तीर से चले आने की
होती है सुखद अनुभूति किसी के
धप्प से लिपट जाने की
आती है ध्वनि कि जैसे उसने
पुकारा हो बिल्कुल अभी
और ठीक तभी ही
फैला हुआ सन्नाटा
सारे भ्रम को चकनाचूर कर
किसी अनवरत नदी-सा
प्रवाहित होने लगता है कोरों से
है कैसी विडम्बना
कितना क्रूर है ये नियम
कि भीषण वेदना, अथाह दुःख के सागर में
सारी संभावनाओं के समाप्त हो जाने पर भी
रुकती नहीं समय की गति
चलायमान रहता है जीवन
ठीक वैसे ही
जैसे कि हुआ करता था
किसी की उपस्थिति में
पर न जाने क्यूँ फिर भी
उम्मीद की खिड़की पर
बरबस टंग जाती हैं आँखें
और प्रतीक्षा के द्वार
अंत तक खुले रहते हैं....
- प्रीति 'अज्ञात'
जो घटित होते ही रोप देता है
दुःख के तमाम बीज
स्मृतियों की अनवरत आवाजाही के मध्यांतर में
पनपती हैं चहकती सैकड़ों तस्वीरें
और किसी चलचित्र की तरह
जीना होता है उन्हें मौन, स्थिर बैठकर
बादलों के उस पार से
सुनाई देती है अब भी
नन्हे क़दमों की आहट
तीर से चले आने की
होती है सुखद अनुभूति किसी के
धप्प से लिपट जाने की
आती है ध्वनि कि जैसे उसने
पुकारा हो बिल्कुल अभी
और ठीक तभी ही
फैला हुआ सन्नाटा
सारे भ्रम को चकनाचूर कर
किसी अनवरत नदी-सा
प्रवाहित होने लगता है कोरों से
है कैसी विडम्बना
कितना क्रूर है ये नियम
कि भीषण वेदना, अथाह दुःख के सागर में
सारी संभावनाओं के समाप्त हो जाने पर भी
रुकती नहीं समय की गति
चलायमान रहता है जीवन
ठीक वैसे ही
जैसे कि हुआ करता था
किसी की उपस्थिति में
पर न जाने क्यूँ फिर भी
उम्मीद की खिड़की पर
बरबस टंग जाती हैं आँखें
और प्रतीक्षा के द्वार
अंत तक खुले रहते हैं....
- प्रीति 'अज्ञात'
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