Sunday, November 17, 2019

राजा और प्रजा

लाशों के ढेर पर खड़े होकर 
राजा बजा रहा है शान्ति का बिगुल
भीड़ के शोरगुल में 
दबा दी गई है सच की आवाज 
छिपाये जा चुके हैं ख़ून से सने दस्ताने 
राजा जानता है कैसे मूर्ख बनती है प्रजा 
और कैसे बरग़लाया जा सकता है 
जन्मों से भूखी क़ौम को 
तभी तो डालकर रोटी के दो टुकड़े 
वो लगा देता है लेबल छप्पन भोग का 
धँसे पेट और चिपकी अंतड़ियाँ लिए लोग
टूट पड़ते हैं जीवन के लिए 
शुष्क गले और कृतज्ञ आँखों से 
लगाते हैं जयकारा 
'राजा महान है'
राजा सचमुच महान है 
तभी तो अशिक्षा और बेरोज़गारी के मस्तक पर 
धर्म का तिलक लगा 
बजवा रहा है अपने नाम का
चहुँदिश डंका 
राजा को बस यही सुनाई देता है 
राजा को बस यही दिखाई देता है 
बस यही राजा के मन की बात है 
कि उसने पकड़ ली है जनता की नब्ज़ 
और पाल रखे हैं चुनिंदा,अनपढ़ इतिहासकार 
जो कान घुमाते ही भारतीयता को धता बता 
गढ़ने लगते हैं मनमाफ़िक़ किस्से   

पुराने नामों पर नए मनमोहक मुलम्मे चढ़ा
सिद्ध होता है देशभक्ति का नया फॉर्मूला 
फिर चुनते हुए अपने महापुरुष 
ठोकी जाती है अहंकार की पीठ 
हुआँ हुआँ की ध्वनि से गूँजता है वातावरण 
और यकायक खिल उठते हैं आत्ममुग्धता से लबालब 
सारे स्वार्थी, मनहूस चेहरे

राजा की बंद आँखों को 
नहीं दिखतीं स्त्रियों की लुटती अस्मिता 
उसे नहीं सुनाई देते 
मासूम बच्चों के चीखते स्वर 
वो नहीं बताता बलात्कारियों को बचाने का सबब 
वो नहीं दिखाता बाल मजदूरों को 
उसे न देश की गरीबी दिखती है, न दुःख 
कहा न! राजा महान है! 
इसलिए प्रजा को भी नतमस्तक हो स्वीकारनी होगी 
उसकी महानता 

शान्ति के बाशिंदों और
अहिंसा के स्वघोषित पुजारियों ने 
डिज़ाइनर वस्त्र के भीतर की जेबों में 
सँभाल रखे हैं कई धारदार चाक़ू 
जिनसे रेता जायेगा वो हर एक गला
जो असहमति में हिलता नज़र आएगा 
जो सच बोलेगा,वही सबसे पहले मारा जायेगा

यूँ राजा अद्भुत नाटककार है प्रेम का
अपनी ग़लतियों को मौन के धागे से सिल
वो मुदित हो उँगलियों पर गिनाता है
दुश्मनों की कमियाँ 
विद्वेष और बदले की आग से भरी जा रहीं जेलें 
और अपराधियों से उसकी वही पहले सी साँठगाँठ है 
इन दिनों वो रच रहा वीरों की नई परिभाषा 
बता रहा क़ायरों को क्रांतिकारी 
क्यूँ न कहे वो ऐसा 
क्यूँ न लगे उसे ऐसा 
वह स्वयं भी तो इन्हीं आदर्शों को
जीता रहा वर्षों से 
पर तुम कुछ न कहना 
दोनों हाथों से ताली पीटते हुए 
चीखना जोरों से कि राजा अच्छा है
क्योंकि राजा कोई भी हो 
प्रजा को रोटी के साथ-साथ 
अपनी जान भी तो प्यारी है 
- प्रीति 'अज्ञात'(9/11/19)



Thursday, July 25, 2019

बलत्कृत औरतें


संस्कारी समाज में
बलत्कृत औरतें 
अब कभी नहीं कर सकतीं प्रेम 
कि भद्र प्रेमियों के लिए जुगुप्सा का कारण,
शर्म, अभिशाप का विषय है उनकी उपस्थिति
और विवश हो ढूँढनी पड़ती है इन सच्चे प्रेमियों को
हर माह इक नई देह  
अस्वीकृत है इन औरतों का खुलकर हँसना- बोलना
उस पर सामान्य रह,
लोगों के बीच दोबारा जीने की कोशिश? 
ओह! नितांत अभद्र है, अशिष्ट है, व्यभिचार है!
निर्लज्जता है, अश्लीलता है....अस्वीकार है!  
सुन रही हो न स्त्रियों!
वे कहते हैं...
तुम जैसों का जीना 
किसी वैश्या से भी कहीं ज्यादा दुश्वार है! 
कि बलत्कृत औरत का कोई हो ही नहीं सकता 
सिवाय छलनी देह और कुचली आत्मा के!
तो क्या हर बलत्कृत औरत को
उसके दोस्त, परिवार वालों और प्रेमी 
की तिरस्कृत निग़ाहों के 
तिल-तिल मार डालने से बहुत पहले
सारा स्नेह, ममता, मोह त्याग 
स्वतः ही मर जाना चाहिए सदैव? 
या फिर यूँ हो कि
न्याय की प्रतीक्षा कर गुज़र जाने से बेहतर 
किसी रोज़ वो भी 
पथरीले बीहड़ में छलाँग लगाए 
और फूलन बन जाए!  
- प्रीति 'अज्ञात'
#फूलन देवी, पैदा नहीं होती....समाज बनाता है!
तस्वीर: गूगल से साभार 

Thursday, June 27, 2019

स्त्री और प्रेम

जब भी लिखना चाहा प्रेम 
अचंभित हो पाँव पसारने लगी
अंतहीन उदासी
जब भी जीना चाहा प्रेम 
प्रतीक्षा जैसे ह्रदय पर जड़ें जमा 
लिपट गई अमरबेल की तरह
जब-जब आश्वस्ति होने लगी प्रेम पर 
तब-तब स्वयं को प्राथमिकता के 
सबसे निचले पायदान पर
दुविधा के रूप में ही खड़े पाया 
मेहंदी के सुर्ख पत्तों ने
स्वप्नों की नर्म क्यारियों में   
ज्यों ही रचानी चाही सूनी हथेली 
सारी रेखाएँ उसी क्षण 
उंगलियों से फिसल
दुर्भाग्य के हाथों अनाथ 
दम तोड़ती चली गईं 

नहीं लिखूँगी प्रेम 
नहीं जियूँगी प्रेम 
नहीं रंगनी ये हथेलियाँ भी
कि मरीचिका है प्रेम 
किसी रुदाली के स्वागत को 
बाँहें फैलाये आतुर
मायावी, शैतान बला है कोई  

अब मैं प्रतीक्षा की
सारी उदास चिट्ठियाँ
बेरहमी से हवा में उछाल
अपने ही सुरक्षित खोल में ठहर 
स्वयं ही बेदर्दी से कुरेद 
खरोंचने लगी हूँ
अपनी बची हुई लक़ीरें 
-प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, June 26, 2019

जाप जारी है....

न सभ्यता बदली 
न ही संस्कृति 
लेकिन इनके मायनों में
दिखने लगा है परिवर्तन  
और समाज के तो कहने ही क्या! 
इसका तो इतना हुआ है विकास
कि खून से लथपथ देह देखकर भी 
अब जी नहीं काँपता उतना 
हत्या, आगजनी और अपराध-जगत की हर ख़बर 
लगने लगी है बासी
किसी पुराने अखबार की तरह 
न जाने क्या सच है और कितना 
पर यह तो सिद्ध हो चुका कि
रिमोट ने आसान कर दिया जीना सबका 
तभी तो इन बजबजाती साँसों के साथ भी 
जारी है अनवरत ठहाकों का क्रम 
निगली जा चुकी सारी संवेदनाओं के मध्य
चबा-चबाकर खाये जा रहे हैं क़बाब 
अब जबकि ईश्वर भी लज्जित होता होगा
अपनी इस बदनामी पर
और लाशों के ढेर देख फफकता होगा रोजाना 
तब भी गली-चौराहों में
मर्यादा के पखेरू चिथड़ों के बीच 
मर्यादा पुरुषोत्तम का जाप जारी है....
- प्रीति 'अज्ञात' 

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Saturday, May 25, 2019

हे! ईश्वर

मैं चाहती हूँ 
कि एक चिट्ठी लिखूँ उन देवताओं को 
जिनके मत्थे मुसीबत का हर ठीकरा फोड़ 
निश्चिन्त हो चुका है मनुष्य 
वो हत्या कर यह सोच लगा लेता है 
गंगा में एक और डुबकी 
'अब आगे तुम देख लोगे'
वो जाता है आस्था के कुम्भ में 
दुआओं के हज़ पर
मंदिर, मस्ज़िद, गुरूद्वारे में  
कभी चारों धाम की यात्रा कर तुम तक 
अपने प्रायश्चित की सूची पहुँचाने की
उम्मीद लिए भटकता है उम्र भर
तो कभी मन्नतों के धागे से बाँधी आस लिए 
मारा-मारा फिरता है  
सुनो, ईश्वर 
मनुष्य यह मानने लग गया है
कि तुम उसके पापों को पुण्य में बदलने की मशीन लिए बैठे हो
या फिर उसके सद्कार्यों का लेखा-जोखा कर 
पुरस्कार देने की सुविधा है ऊपर  
उसे तो यह भी भ्रम है कि जो पीड़ित हैं 
वे भोग रहे हैं कोई पुराना पाप
भक्ति के तिलक और श्रद्धा के चन्दन को नमन करते हुए 
मैं उस समय यह प्रश्न पूछना चाहती हूँ तुमसे  
कि फिर पापी अपना जन्म क्यों बिगाड़ रहे हैं?
क्या यही सृष्टि का नियम है? 
यही पारिस्थितिकी तंत्र है?
कैसा संतुलन है ये कि किसी के हाथों में खंज़र 
और किसी के खोंपने की पीठ दे दी तुमने 
किसी के आँगन में ख़ुशी 
तो किसी के जीवन में विषबेल रोप दी तुमने 
क्या तुम्हें कभी किसी अनाथ का रुदन नहीं सुनाई देता?
क्या किसी विधवा की चीखें सचमुच तुम तक नहीं पहुँचती?
क्यों छीन लेते हो निर्दोष को? 
क्यों तुम्हारी आँखों के सामने भिनकते अपराधियों का 
बाल भी बांका नहीं होता!
जानते हो न! अब तुमसे संभल नहीं रही
तुम्हारी ही बनाई दुनिया  
सुनो, तुम अब रिटायर क्यों नहीं हो जाते?
- प्रीति 'अज्ञात'

Tuesday, May 21, 2019

उसने मुझे अच्छा कहा!

कुछ कविताएँ जिनके लिए लिखी जाती हैं, उनके द्वारा पढ़ी नहीं जातीं
कुछ कही जाती हैं, पर सुनी नहीं जातीं
कुछ भेजी जाती हैं, पर उनके जवाब अनुत्तरित रहते हैं 
कुछ डायरी में लिखी रह जाती हैं, एक अच्छे दिन की तलाश में....और तब तक उनके मायने खो जाते हैं.
ऐसा ही कुछ -

जब तुम मुझे अच्छा कहते हो
तो जैसे दुनिया भर के सारे दुःख
हँसते हुए छोड़ देते हैं मेरा साथ
और मेरी आँखों में उतर आती है
वो ख़ूबसूरत हरी घाटी
जहाँ खिलखिलाते फूलों का
एक भरा-पूरा मोहल्ला है
जी करता है कि दौड़कर जाऊं
किसी उत्तंग शिखर पर
और आसमान का माथा चूमते हुए
सुनूँ अपनी ही प्रतिध्वनि
कि देखो! उसने मुझे अच्छा कहा!
या फिर डुबा दूँ
मीठी सी किसी प्रेम नदी में अपना चेहरा
और बताऊँ उसे उसकी ही जुबां से
कितना अच्छा लगता है! अच्छा सुनना
कभी किसी रोज दाना चुगती
चिड़ियों की चहचहाहट संग
गुनगुनाऊं मैं भी हौले-हौले
कि ख़ुशी की सुबह ऐसी होती है!
तो कभी चाँद की खिड़की पर बैठकर
बादलों से कहूँ...
सुनो, उसने मुझे अच्छा कहा!
- - © #प्रीति_अज्ञात

Saturday, May 11, 2019

कुछ इस तरह

मिलो तो इस तरह मिलना 
कि हवा हो जाएँ लक़ीरों की
सारी शिक़ायतें 
और यूँ लगे जैसे सर्द अहसासों के आँगन में 
गुनगुनी धूप उतर आई हो चुपके से

हँसो तो इस तरह हँसना 
जैसे चहक उठता है सूरजमुखी
किरणों को देखकर 
और कलियाँ निग़ाहों का नज़रबट्टू
पहना देती हैं उसे इठलाकर 

कहो तो कुछ यूँ कहना 
जैसे बारिश की बूँदें लिपटकर 
बोलती हैं पत्तों से 
और ओढ़ लेते हैं वृक्ष 
सरगम की नवीन धुन कोई 

ठहरो तो यूँ ठहरना 
जैसे तारों को बाँहों में भर 
सदियों से आसमान पर ठहरा है चाँद
और देता है साथ, रात का  
जीवन के हर मौसम में 
-  © 2019 #प्रीति_अज्ञात

Sunday, May 5, 2019

मनुष्यता

क़लम ने जब-जब लिखना चाहा सच 
झूठ ने तब-तब चहुँ दिशा से घेर
मारना चाहा उसे 
पर वे जो हर भय से ऊपर उठ
आवश्यक मानते थे मनुष्यता बचाये रखना, 
निर्भीक हो उन्मादी भीड़ से जूझते रहे
इधर झूठों ने की विषय बदलने की गुज़ारिश 
और चाटुकार लपककर टटोलने लगे इतिहास
कायरों ने हर बार की तरह इस बार भी
छुपते-छुपाते, दबे स्वरों में साथी बनने का
गहन भाव प्रकट करना उचित समझा 
लेकिन ये जो मुट्ठी भर ईमानदार लोग थे
जिन्हें हड़प्पा की सभ्यता को कुरेदने से
कहीं अधिक श्रेष्ठ लगा बच्चों का भविष्य देखना
उनके शब्द अंत तक सत्य के साथ
निस्वार्थ, बेझिझक, अटल खड़े रहे
जबकि वे भी मानते हैं कि 
उन्मादी दौर में कोई नहीं पूछता गाँधी को
यहाँ असभ्यता, अभद्रता पर बजने लगी हैं तालियाँ 
और क़लम के हिस्से, फूल से कहीं अधिक
आती रही हैं गालियाँ 
लेकिन देखिये.....तब भी उन्होंने 
मनुष्य होना ही चुना!
- © 2019 प्रीति 'अज्ञात'

Tuesday, April 30, 2019

लोग याद करेंगे...

एक दिन लोग याद करेंगे
वे सभी बातें जो
समय की कमी का रोना रोते हुए
सुनी ही न जा सकीं कभी
वे सभी दुःख जिन्होंने चाहे थे 
प्रेम के दो मीठे बोल, 
फोन के होल्ड पर दूसरी ओर
मौन ही रखे रह गए 
वे सारी खुशियाँ 
जो साथ मनाये जाने की उम्मीद में
प्रतीक्षा की खिड़की पर 
बरस दर बरस सजी, ठगी खड़ी रहीं
वे नाम जिन्होंने अपनी रेखाएँ उनके नाम लिख दीं,
जो व्यस्त रहे नई मंज़िलों की तलाश में
भटकते रहे घाट-घाट
जबकि उन्हें याद रखना चाहिए था
उन दुआओं को
जो उम्र भर चुपचाप साथ चलती रहीं
लेकिन हुआ यूँ कि
वे सभी पल जो मिलकर जिए जा सकते थे कभी 
एक-एक कर अकाल मृत्यु को प्राप्त होते रहे 
उन सभी ख़्वाबों को भी मुक़म्मल होना था 
जो यह सोच अधूरेपन की देहरी पर ठिठके रहे
कि शायद कभी.... प्राथमिकताओं की सूची में 
बने रिक्त स्थानों के मध्य ही सही
वे भी पा जाएँ जगह
पर वे स्थान भी वर्गानुसार आरक्षित निकले!
अब जबकि प्रतीक्षा की गहरी झाइयाँ
झुँझलाकर आँखों से नीचे लगी हैं उतरने 
तो सरकने लगी है उम्मीद भी 
और कभी उभरी थीं जो अपेक्षाएँ
वे उपेक्षा की सीढ़ियों पर चढ़ते-उतरते, उकता
हाथ जोड़ विदा लेना चाहती हैं सादर 
कि सबके समय की विवशता 
इधर भी ढल चुकी है थकान बन
और 'प्रेम' किसी शिक्षित बेरोज़गार की तरह
स्नेह, परवाह और उम्मीद की तमाम निरर्थक डिग्रियों को जला
हर भाव से मुक्त होना चाहता है!
पर तुम देखना!
एक दिन.....लोग याद करेंगे!
- प्रीति 'अज्ञात'
Pic Credit: Google

Thursday, April 4, 2019

इन दिनों

मैंने जी लिया है इतना 
कि जीवन की सर्वश्रेष्ठ और
सटीक परिभाषा न जानते हुए भी 
पहचानने लगी हूँ ख़ुशी का मोल 
उन्मुक्त हो हँसी हूँ इतना
कि समझती हूँ आनंद का पर्याय 
और यह भी कि खिलते चेहरे ही 
बाँट सकते हैं दूसरों को मुस्कान
जबकि हो चुके हैं विलुप्त
उदासियों के सभी ख़रीददार
यहाँ व्यस्तता की चिंघाड़ती दुंदुभि दरअसल 
बदलती प्राथमिकताओं का गहरा शोक़ है

रोई हूँ इतनी दफ़ा 
कि दुःख के दो अक्षरों ने 
आँखों के भीतर की कोटर में 
पहाड़ सा घर कर लिया है
और लाख जतन के बाद भी
धुँधला जाती है सुख की हर किरण 
अहसास की उष्णता बढ़ते ही
पिघलने लगती हैं दृढ़ शिलायें
ज्यों भागीरथी निकलती है
हिमशिलाओं से सरककर

फिर तब ही ये जाना 
कि खोने और टूट जाने का दर्द
ह्रदय में बरगद सा पसर 
कैसे पुख़्ता कर लेता है अपनी जड़ें 
हम्म, प्रेम किया है सबसे 
जिया है इसे छँटाक भर ही 
लेकिन महसूसा इसका हर पहलू उतना 
जितना सदियों पुराने कायांतरित पाषाण को
धीरे-धीरे खुरचता हुआ 
कोई भू- विज्ञानी पहुँच जाता है अंततः 
किसी जीवाश्म की तहों तक

यह भी सीखा कि 
सत्य और असत्य को समझते हुए भी 
इसे कहने की एक विशिष्ट कला
करनी होती है विकसित 
कुछ इस तरह जैसे 
समंदर में घोलनी हो चीनी 
इधर ऊन के गोले सी उलझी दुनिया में
उल्टी-सीधी तमाम रीतों की सलाइयों से
चढ़ते-उतरते, मेरे ख्व़ाब अब थककर
कसमसाते हैं जीवित रहने की तमाम शर्तों के बीच 
शायद जान चुके हैं वे भी कि आजकल
कहीं कुछ दुर्लभ है तो
संवेदनाएँ सहेजे हुए अपने सच के साथ डटे रहना
मनुष्यता बचाये रखना 
जबकि आत्ममुग्धता और अहंकार से लबालब भरी
स्वार्थी, निष्ठुर इस दुनिया में 
'मृत्यु' बस एक समाचार भर है!
- प्रीति 'अज्ञात'


Friday, March 22, 2019

गँवार लड़की

लड़की ढूँढ रही थी पानी
तलाश करते-करते 
पपड़ा चुके थे होंठ 
सूखता गला रेगिस्तान से रेतीले अंधड़ों से जूझते हुए
गटकने लगा स्वयं को  
पर फिर भी तैयार न था पराजय को 
इधर धरती पटी हुई थी कंक्रीट के पक्के विकास से
और लेनी पड़ी थी उदास माटी को विदाई  
वो चाहते हुए भी नहीं सोख पाई
बीती बारिश को 
होती आज तो अवश्य ही अपनी छाती से लगा 
बुझा देती हर नन्हे पौधे की प्यास 
पौधे जो एक दिन वृक्ष बन 
अपनी शाखाओं से आसमान तक पहुँच 
बादलों को बरसने का निमंत्रण दे सकते थे
वे बेचारे भ्रूण हत्या का शिकार हुए  
गाँव में हर तरफ सूखा मुँह लिए
लज्जित खड़े थे पोखर, नदी, तालाब, तलैयाँ 
लड़की जान चुकी थी कि 
आज भी घर में नहीं पकेगा खाना 
भोजन की उम्मीद में उसे भागना होगा
शहर की ओर
सुना है, शहर में सब मुमकिन है! 
यहाँ आधुनिकीकरण की होड़ ने 
भले ही रेत दिया है धरती का गला
पर पानी क़ैद है बोतलों में
खूब बिकता है औने-पौने दामों में  
उसे ख़रीदना होगा 
जीवन का मूल आधार 
गँवार लड़की कहाँ जानती है
अपने मौलिक अधिकार!
लड़की दौड़ रही है 
जैसे दौड़ा करती थी उसकी माँ  
और उसके पहले नानी 
-प्रीति 'अज्ञात'

#विश्व_जल_दिवस #World_Water_Day
Pic. Credit: Google

Wednesday, March 20, 2019

हमारी पहचान हैं त्योहार

होली न खेलने के सबके अपने सौ कारण हो सकते हैं. मेरे भी हैं. हाँ, मुझे तो इस दिन हमेशा ही लगता है कि धरती फटे और मैं उसमें समा जाऊँ. यद्यपि गुजरात में इसका वो रंग देखने को नहीं मिलता जैसा कि बचपन से भिंड, ग्वालियर, आगरा, अलीगढ़, दिल्ली, लखनऊ, चंडीगढ़, बनारस, मिर्ज़ापुर में देखती आई हूँ. वहाँ तो अगर होली है तो लाख जुगत करके भी आप बच नहीं सकते! आपके अपने मित्र जयचंद बन जाते हैं. रंग-गुलाल की शिष्टता तो भूल ही जाइये, जब तक कीचड़ में न लोटाया या चेहरे पर सिल्वर पेंट न चिपकाया; वो भी कोई होली हुई! फिर भले ही अगले पंद्रह दिन तक कान के पास लगे रंग के न हटने के लिए दोस्तों को कोसते रहें, टीचर को सफाई दे-देकर थक जायें और दीवार-आँगन को साफ़ करते-करते घर की महिलाएँ 'नास जाए नासपीटों का!' कहकर उन लोगों को गालियाँ न दें..तब तक होली होती ही नहीं! ये सब त्योहार से उपजे सुन्दर भाव हैं तभी तो सब तरफ़ लाख़ रंग उड़ाने, बाल्टी भर-भर फेंकने और खूब शोर मचाने के बाद भी मीठी गुजिया की तश्तरी आपका स्वागत करती है. कही कढ़ी-चावल बनते हैं तो कहीं पुलाव, दहीबड़े से स्वाद कलिकाओं को तृप्त किया जाता है. पूरी-कचौरी तो आगे-पीछे बनना तय ही है. खाना-पीना, मस्ती और पुरानी बातों को भूलकर मेल-मिलाप यही इस देश के सभी त्योहारों का मूल भाव रहा है. यही हमारी पहचान भी है.
  
कहने का तात्पर्य यह है कि आप खेलें, न खेलें....ये आपकी मर्ज़ी है पर हर बात में इतिहास को मत कुरेदा कीजिये. हर पर्व के दिन ही उसकी बुराई क्यों करनी? इससे केवल और केवल नकारात्मकता फैलती है. ये साल के हर माह में पड़ने वाले त्योहार ही हैं जो प्रसन्न रहने के अवसर देते हैं. इस बहाने ही सही पर लोग एक-दूसरे से मिल तो लेते हैं! बधाई देने के लिए ही सही उन्हें अपने जीवित होने का एक सन्देश तो देते हैं! परिवार के साथ गुजारने को एक दिन तो मिल जाता है!

इन पर्वों का ज़िंदा रहना इसलिए भी आवश्यक है कि मनुष्यता शेष रहे! जब हम किसी अपने के गले लगते हैं तो वह जीवन का सबसे ख़ूबसूरत अनुभव और स्पर्श होता है. हमारे त्योहार इन पलों को हमारे जीवन में बिन जताये परोस देते हैं. वरना इस व्यस्त, गलाकाट, राजनीति और स्वार्थ से भरी दुनिया में किसके पास समय है! बल्कि अहसासों के साथ चलने वाले तो अब मूर्ख ही समझे जाने लगे हैं.

होली, दीवाली, ईद, क्रिसमस, संक्रांति और कितने ही ऐसे त्योहार हैं, जो यदि न होते तो जीवन नीरसता और विकृतता से पूरी तरह भर गया होता. हम यूँ भी रोबोट की ज़िन्दग़ी जीने लगे हैं. ऐसे में हमें हमारी संस्कृति को गले लगा, उसे बाँहों में भर चलना ही होगा. हमारी भारतीयता की कहानी इन्हीं में शेष है और इसे जीवित रखना हम सबका उत्तरदायित्त्व है.
कहीं हिन्दू-मुस्लिम के फेर में फँसकर हम सब कुछ खो न बैठें! सत्ता और विपक्ष की रस्साकशी और सारी लगाई-बुझाई के बीच किसका भला हो पाया है पता नहीं! पर वैमनस्यता बढ़ती जा रही है. होली का शुभ अवसर है, ऐसे में सब कुछ भुलाकर जादू की झप्पी मारिये और जीने में सुक़ून के दो पल जोड़िये. सरकारें आनी-जानी हैं, ये हम और आप ही हैं जिन्हें साथ चलते रहना है. 😊
रंग और स्नेह भरी हर शुभकामना आप सबके लिए 💓
- प्रीति 'अज्ञात'
#होली #त्योहार

Tuesday, March 19, 2019

कई बार...

कई बार प्रेम तब होता है 
जब उसे नहीं होना चाहिए था 
इंसान जीता है व्यर्थ ही 
जबकि उसे मर जाना चाहिए था 
किसान हाथ जोड़ पूजता है रहनुमाओं को 
जबकि उनका कॉलर पकड़ खींच लेना चाहिए था 
स्त्री वर्षों बचाती है बिखरे रिश्ते को 
जबकि उसे पहले ही दिन बाहर निकल जाना चाहिए था 
लोग उम्र-भर ढकते हैं अपनी-अपनी कमियाँ 
जबकि उनमें सुधार या फिर उन्हें स्वीकार कर लेना चाहिए था 
उलझ जाते हैं सब खोखले शब्दों के मायाजाल में 
जबकि बहेलिए को दर्पण दिखाना चाहिए था 
रिश्ते, राजनीति, प्रेम या कि जीवन
जीतता आया है सबमें झूठ ही सदैव 
जबकि हर बार सच को सामने आना चाहिए था
सच को सामने आना ही चाहिए था
- कॉपीराइट © प्रीति 'अज्ञात'
तस्वीर: गूगल से साभार

Monday, March 11, 2019

ये दुनिया

दुनिया ये पागल सारी है
अपनों से हरदम हारी है 

छूटा शहर, गली, हर गाँव 
सफ़र अभी तक जारी है

जो आये, आकर लौट गए 
दिल उनका आभारी है 

सुख के बस ढलते किस्से हैं 
दुःख का हर पाँव भारी है  

पेड़, छाँव, छत खो बैठे 
जीवन की धूप क़रारी है

इश्क़, मुहब्बत, आशिक़, दिल 
सब मरने की तैयारी है
- © प्रीति 'अज्ञात'