जब भी लिखना चाहा प्रेम
अचंभित हो पाँव पसारने लगी
अंतहीन उदासी
जब भी जीना चाहा प्रेम
प्रतीक्षा जैसे ह्रदय पर जड़ें जमा
लिपट गई अमरबेल की तरह
जब-जब आश्वस्ति होने लगी प्रेम पर
तब-तब स्वयं को प्राथमिकता के
सबसे निचले पायदान पर
दुविधा के रूप में ही खड़े पाया
मेहंदी के सुर्ख पत्तों ने
स्वप्नों की नर्म क्यारियों में
ज्यों ही रचानी चाही सूनी हथेली
सारी रेखाएँ उसी क्षण
उंगलियों से फिसल
दुर्भाग्य के हाथों अनाथ
दम तोड़ती चली गईं
नहीं लिखूँगी प्रेम
नहीं जियूँगी प्रेम
नहीं रंगनी ये हथेलियाँ भी
कि मरीचिका है प्रेम
किसी रुदाली के स्वागत को
बाँहें फैलाये आतुर
मायावी, शैतान बला है कोई
अब मैं प्रतीक्षा की
सारी उदास चिट्ठियाँ
बेरहमी से हवा में उछाल
अपने ही सुरक्षित खोल में ठहर
स्वयं ही बेदर्दी से कुरेद
खरोंचने लगी हूँ
अपनी बची हुई लक़ीरें
-प्रीति 'अज्ञात'
अचंभित हो पाँव पसारने लगी
अंतहीन उदासी
जब भी जीना चाहा प्रेम
प्रतीक्षा जैसे ह्रदय पर जड़ें जमा
लिपट गई अमरबेल की तरह
जब-जब आश्वस्ति होने लगी प्रेम पर
तब-तब स्वयं को प्राथमिकता के
सबसे निचले पायदान पर
दुविधा के रूप में ही खड़े पाया
मेहंदी के सुर्ख पत्तों ने
स्वप्नों की नर्म क्यारियों में
ज्यों ही रचानी चाही सूनी हथेली
सारी रेखाएँ उसी क्षण
उंगलियों से फिसल
दुर्भाग्य के हाथों अनाथ
दम तोड़ती चली गईं
नहीं लिखूँगी प्रेम
नहीं जियूँगी प्रेम
नहीं रंगनी ये हथेलियाँ भी
कि मरीचिका है प्रेम
किसी रुदाली के स्वागत को
बाँहें फैलाये आतुर
मायावी, शैतान बला है कोई
अब मैं प्रतीक्षा की
सारी उदास चिट्ठियाँ
बेरहमी से हवा में उछाल
अपने ही सुरक्षित खोल में ठहर
स्वयं ही बेदर्दी से कुरेद
खरोंचने लगी हूँ
अपनी बची हुई लक़ीरें
-प्रीति 'अज्ञात'
बहुत गहन भावयुक्त बेहद हृदयस्पर्शी सृजन।
ReplyDeleteमन छू गयी रचना👌
धन्यवाद, श्वेता
Deleteबेहद खूबसूरत कविता! बधाई प्रीति
ReplyDelete