Thursday, April 4, 2019

इन दिनों

मैंने जी लिया है इतना 
कि जीवन की सर्वश्रेष्ठ और
सटीक परिभाषा न जानते हुए भी 
पहचानने लगी हूँ ख़ुशी का मोल 
उन्मुक्त हो हँसी हूँ इतना
कि समझती हूँ आनंद का पर्याय 
और यह भी कि खिलते चेहरे ही 
बाँट सकते हैं दूसरों को मुस्कान
जबकि हो चुके हैं विलुप्त
उदासियों के सभी ख़रीददार
यहाँ व्यस्तता की चिंघाड़ती दुंदुभि दरअसल 
बदलती प्राथमिकताओं का गहरा शोक़ है

रोई हूँ इतनी दफ़ा 
कि दुःख के दो अक्षरों ने 
आँखों के भीतर की कोटर में 
पहाड़ सा घर कर लिया है
और लाख जतन के बाद भी
धुँधला जाती है सुख की हर किरण 
अहसास की उष्णता बढ़ते ही
पिघलने लगती हैं दृढ़ शिलायें
ज्यों भागीरथी निकलती है
हिमशिलाओं से सरककर

फिर तब ही ये जाना 
कि खोने और टूट जाने का दर्द
ह्रदय में बरगद सा पसर 
कैसे पुख़्ता कर लेता है अपनी जड़ें 
हम्म, प्रेम किया है सबसे 
जिया है इसे छँटाक भर ही 
लेकिन महसूसा इसका हर पहलू उतना 
जितना सदियों पुराने कायांतरित पाषाण को
धीरे-धीरे खुरचता हुआ 
कोई भू- विज्ञानी पहुँच जाता है अंततः 
किसी जीवाश्म की तहों तक

यह भी सीखा कि 
सत्य और असत्य को समझते हुए भी 
इसे कहने की एक विशिष्ट कला
करनी होती है विकसित 
कुछ इस तरह जैसे 
समंदर में घोलनी हो चीनी 
इधर ऊन के गोले सी उलझी दुनिया में
उल्टी-सीधी तमाम रीतों की सलाइयों से
चढ़ते-उतरते, मेरे ख्व़ाब अब थककर
कसमसाते हैं जीवित रहने की तमाम शर्तों के बीच 
शायद जान चुके हैं वे भी कि आजकल
कहीं कुछ दुर्लभ है तो
संवेदनाएँ सहेजे हुए अपने सच के साथ डटे रहना
मनुष्यता बचाये रखना 
जबकि आत्ममुग्धता और अहंकार से लबालब भरी
स्वार्थी, निष्ठुर इस दुनिया में 
'मृत्यु' बस एक समाचार भर है!
- प्रीति 'अज्ञात'


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