सुनते आए हैं सदियों से -
'जो गरजते हैं, वो बरसते नहीं'
शांत जो कर लेते हैं,
अपने हृदय की व्यथा चिल्ला-चिल्लाकर
तेज रोशनी में तमतमाकर
पर बंद हो जाते हैं, उनके भय से
सारे दरवाजे-खिड़कियाँ और रोशनदान भी !
लेकिन जो कह नहीं पाते
भरा करते हैं एक सहमी-सी हुल्कारी
और काले घुप्प अंधेरे में, चुपचाप ही
बरस पड़ते हैं, कभी धीमी बारिश बन
तो कभी मूसलाधार,
फिर भी रखते हैं साथ उम्र-भर,
उम्मीद की इक खुली खिड़की !
प्रीति 'अज्ञात'
'जो गरजते हैं, वो बरसते नहीं'
शांत जो कर लेते हैं,
अपने हृदय की व्यथा चिल्ला-चिल्लाकर
तेज रोशनी में तमतमाकर
पर बंद हो जाते हैं, उनके भय से
सारे दरवाजे-खिड़कियाँ और रोशनदान भी !
लेकिन जो कह नहीं पाते
भरा करते हैं एक सहमी-सी हुल्कारी
और काले घुप्प अंधेरे में, चुपचाप ही
बरस पड़ते हैं, कभी धीमी बारिश बन
तो कभी मूसलाधार,
फिर भी रखते हैं साथ उम्र-भर,
उम्मीद की इक खुली खिड़की !
प्रीति 'अज्ञात'