Sunday, December 6, 2015

"यादों के लेटर-बॉक्स में भीतर से कुण्डी नहीं होती.....!"

जो क़िताबें कह नहीं पातीं 
वो पाठ अनुभव सिखाता है 
जीवन की भूलभुलैया में 
कोई बैकग्राउंड स्कोर-सा
बजता  है पुराना संगीत
ज़िंदगी के पहाड़े अब 
उलटे ही चला करते हैं
रंगहीन दुनिया में मुश्किल है 
जीवन का गणित समझ पाना
मुश्किल है पहचान अपनों की 
कि हर परिस्थिति में
बदले जाते हैं नियम 

चरमराहट की
खीजती आवाज के साथ 
खुलते हैं दिलों के
सुस्त दरवाजे
चेहरे पर 
बोझ की तरह 
लटकी हंसी
करती विवश अभिवादन 
पर चुगलखोर आँखों से 
झांक ही जाती असलियत 
कि इंतज़ार यहाँ 
था ही नहीं कभी 
सूना मन-आँगन
स्वीकारता नियति 
पर दुःख ज़िद्दी बच्चे-सा 
चला ही आता है
यादों की ऊंची मेड़ को 
फलाँगते हुए  

है विडंबना कैसी 
कि सब कुछ 
जानते-समझते हुए भी 
इंसान, उम्र-भर पलटता है
वही भीगे पन्ने
जिनकी एक्सपायरी डेट बीते 
बरसों बीत गए   
फिर भी न जाने क्यों 
यादों के लेटर-बॉक्स में 
भीतर से कुण्डी नहीं होती...... 
© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित

Friday, November 20, 2015

बाहर होती हूँ जब अपने-आप से...

बाहर होती हूँ जब 
अपने-आप से 
तब होकर भी मैं वो नहीं होती 
जो चाहती हूँ होना 
या जो देखना चाहती है
दुनिया 
मुझे होते हुए 
सवाल यह भी
कि जवाब की जिम्मेदारी
हर बार
मुझ पर ही क्यों?

कौन बदला है कभी मेरे लिए?
कौन मेरे बदलने पर 
रह सका है, पहले-सा?
कौन मुस्कुराया है 
मेरी हंसी से?
मेरी नम आँखों ने 
किसका मन भिगोया है?

जब करना है कटाक्ष 
तो करो मेरे 
जीवन स्वरुप  पर 
जो है मेरा बिल्कुल अपना
मेरी सोच, मेरा स्नेह,
मेरी आशा, मेरा विश्वास 
परिस्थितियों के 
गिरगिट के 
बेबस ग़ुलाम नहीं

मैं अब अपने-आप में हूँ
यही रहूंगी 
हाँ, ठीक वैसी ही 
जो मैं स्वयं होना चाहती हूँ
या कि थी पहले से ही 
- प्रीति 'अज्ञात'

Sunday, November 8, 2015

स्वप्न या....?

एक घना जंगल 
यहाँ जानवरों की आवाजाही 
पूर्णत: वैध है 
चोरी से परखते
नापते-तौलते 
घात लगाते पशु 
अचानक टूट पड़ते हैं 
अपने-अपने शिकार पर 
लेते हैं आनंद
लहू से लिपटे उस 
माँस के लोथड़े और
निरीह चीखों का 

दिखाई देते हैं 
इस दृश्य से सहमे 
पेड़ पर चढ़े हुए
टहनियों से लटके 
झाड़ियों में दुबके 
कुछ छोटे जीव-जंतु

सुनाई देती है 
बीच में कहीं-कहीं 
सियारों के हूकने की आवाज
जो हर पलटती गुर्राहट के साथ 
डूबती चली जाती है 

आँख खुलती है 
मैं खुद को 
अपने देश में पाती हूँ!
- प्रीति 'अज्ञात'
Pic : Google

Tuesday, October 27, 2015

माँ कहतीं थीं.....

समय रहते माँ की सीख, समझ लेनी चाहिए! एक रचना, हर आयु की स्त्री को समर्पित -

माँ हरदम कहतीं 
दुनिया उतनी अच्छी नहीं 
जितनी तुम माने बैठी हो 
और मैं तुरत ही 
चार अच्छे दोस्तों के नाम 
गिना दिया करती

माँ ये भी समझातीं 
हरेक पे झट से विश्वास न करो 
जांचो-परखो, फिर आगे बढ़ो 
और मैं उन्हें शक्की मान  
रूठ जाया करती 

माँ आगे बतातीं 
आँखों की गंदगी पढ़ना 
किताबों में नहीं लिखा होता 
मैं फिर भी उन पन्नों में घुस 
बेफ़िज़ूल ख़्वाब सजाया करती

माँ थकने लगीं, ये कहते हुए 
तेरी चिंता है बेटा 
औ' जमाने का डर भी 
यूँ भी तुम्हारा बचपना जाता ही नहीं 
मैं जीभ निकाल, खी-खी 
हंस दिया करती
कि जाओ मैं बड़ी होऊंगी ही न कभी 

इन दिनों मैं 
हैराँ, परेशां भटकती 
अपने ही देश में 
अपनी बेटी का हाथ 
कस के थामे
देखती हूँ आतंक 
दीवारों की चीखों का
भयभीत हूँ 
इर्दगिर्द घूमते 
काले सायों से

दिखने लगे  
लाशों के ढेर पर बैठे 
सफेदपोश, मक्कार  चेहरे 
जिनके लिए है ये मात्र 'घटना'
खुद पर घटित न होने तक 
सुबक पढ़ती हूँ अचानक 
और मनाती हूँ मातम 
अपने 'होने' का 

माँ, तुम ठीक ही कहतीं थीं हमेशा 
सामान्य तौर पर 
यही तो सच है, इस समाज का 
तुमने 'दुनिया' देखी थी
और मैं अपवादों को 
अपनी 'सारी दुनिया' मान 
सीने से लगाए बैठी थी 

देखो न, अब मैं भी  
दोहराने लगीं हूँ यही सब 
अपनी ही बेटी के साथ
सीख गई हूँ बड़बड़ाना,
औ' हँसते-हँसते रो देना
समाचारों को देख
खीजती-चीखती भी हूँ  
पागलपन की हद तक!

माँ आजकल, कुछ नहीं कहतीं 
बस, उदास चेहरा लिए 
हैरानगी से देखतीं है मुझे!
- © 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित

Tuesday, October 20, 2015

'अंत भला तो सब भला'

सोचती हूँ
एक दिन, 
खुद ही, नोच लूँ 
बोटी-बोटी अपनी 
और भिजवा दूँ 
सारे चील-कौवों को 
पाऊँ मुक्ति 
स्त्री-देह के 
अभिशाप से 

 न मरूँगी रोज फिर 
उन गन्दी निगाहों से 
हर घिनौने स्पर्श का 
अब घोंट दूंगी  
मैं ही गला 
क्या विश्वास, 
कैसी मर्यादा 
हर राह यहाँ 
किसी ने 
अपना बन 
ही छला
 
हाँ, तुम जीत जाओगे 
अपने पौरुष के अभिमान से
करोगे चर्चा, अपने हुनर की
स्त्रियों के बेधड़क अपमान से 
ये दुनिया तुम्हारी 
तुमसे और भी
कितने हैं बाक़ी 
इधर एक अकेली स्त्री
जिसके, ज़िंदगी और मौत के 
क्या  हैं मानी
सुना है न 
'अंत भला तो सब भला'
- प्रीति 'अज्ञात'

** ये रचना आत्महत्या की प्रवृत्ति का समर्थन नहीं करती बल्कि उन पुरुषों के लिए एक 'सोच' पैदा करने की उम्मीद है. जो स्त्री (बच्ची को भी) को 'देह' के अतिरिक्त देख ही नहीं पाते. वे ये कैसे भूल जाते हैं कि उन्होंने एक स्त्री की कोख से ही जन्म लिया है, जिसे वो आज 'माँ' कहते हैं. एक बहिन भी होगी उन घरों में, पत्नी/प्रेमिका और बेटी भी हो सकती है. ये पैग़ाम आपकी 'माँ', आपकी 'पत्नी', आपकी प्रेमिका, आपकी 'बेटी' की तरफ से है, आपके लिए. किसी पर अपनी गंदी निगाहें डालने से पहले एक बार उनके चेहरे जरूर याद कर लीजियेगा. यूँ ये अपराध ख़त्म होने की उम्मीद बिलकुल भी नहीं, जिन्हें सजा का कोई डर नहीं वो दूसरों को और भी भयभीत करते हैं.
- प्रीति 'अज्ञात'

Friday, October 2, 2015

झकास!

कहा था उसने
बरसों पहले कि  
एक तमाचे के पड़ते ही
बढ़ा देना दूसरा गाल 
न करना हिंसा का समर्थन
भूलकर भी कभी 
थामे रहना हमेशा
सच्चाई का दामन 
बदलते दौर और
लुप्त होती इंसानियत के बीच
कितना मुश्किल है
'गाँधी' सा होना

पर पलटकर एक और
प्रहार करने से भी
हासिल क्या ?
बढ़ती रहेंगी लड़ाइयाँ
होंगे आरोप-प्रत्यारोप
समाधान तो फिर भी न
निकल सकेगा!
और जो थामा, तुमने
झूठ का दामन
तो खुद ही सोचो
कैसे बुनोगे
रोज एक नई कहानी
'असत्य' की ?

'सत्य' तो यूँ भी
तय है, उज़ागर होना 
तो क्यूँ न बदल लें
हम विरोध के तरीके
और शर्मिंदा होने दें
उन्हें खुद ही अपने
हर गलत कृत्य पर

हाँ, कर लिया है प्रण
गहरा फिर इस बार
होगा बस
गाँधीगिरी का ही वार
यही मेरा विश्वास है
यही सबसे ख़ास है
है दिखने में छोटा
थोड़ा कमजोर ही सही
पर यक़ीन है, अब भी
उतना ही, पहले-सा 
वो आदमी 'झकास' है !
-प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, October 1, 2015

सुनो, भगवान.....

सुनो, भगवान...
आज भी वही हुआ
जो होता आया है
अब इन बातों से
ज्यादा हैरानी नहीं होती
हाँ, होता है मन उदास
कुछेक आँसू भी
अनायास ढुलक पड़ते हैं
मुट्ठियां भिंचती हैं
बेवकूफ़ कलेजा भी 
मुँह को आता है
रुंधता है गला
एक-दो दिन 
और फिर वही दिनचर्या
सब कुछ सामान्य
सच,'इंसानी जीवन' कितना
सस्ता हो चला है यहाँ

पता ही होगा न तुम्हें तो 
तुम्हारी ही बनाई दुनिया जो है
यहाँ तुमसे ज़रूरी कुछ भी नहीं
तुम्हारे अलग-अलग 
नामों की आड़ में
और उन्हीं नामों से बनी
पूजनीय किताबों में
होता है तुम्हारा ख़ूब ज़िक्र
कि तुम ये कर सकते
तुम वो कर सकते
तुम सर्वदृष्टा,
तुम सर्वज्ञानी,
तुम पालनहारा,
जग अज्ञानी 
तुम निर्माता
तुम दुख-हर्ता
तुम भाग्य-विधाता
तुम ही सबके दाता

सुना है
तुम्हारी अनुमति के बिना
एक पत्ता भी नही हिलता
ये प्राणवायु, नदिया की धारा
समंदर, पहाड़, पत्थर
सब में समाहित हो तुम

अब एक बात बताओ 
जब ये सब सच है
तो एक बार आगे बढ़कर
तुम खुद ही कभी अपने ऊपर 
सारा दोष क्यूँ नहीं ले लेते
हटते क्यूँ नहीं
हम सबकी दुनिया से
क्या तुम्हें समझ नहीं आता
इस सब की जड़ 
'बस तुम ही रहे हो सदैव'

या फिर ऐसा करो
एक ही झटके में
ख़त्म करदो ये दुनिया
और करो पुनर्निर्माण
इंसानियत का
बस, इस बार
उस पर
मेड इन हिंदू, मुस्लिम,
सिख, ईसाई, जैन,पारसी
या कोई अन्य धर्म का
ठप्पा लगाकर न भेजना
बस, 'मेड बाय गॉड' काफ़ी है  

और क्या कहूँ, मेरे दोस्त
जी बहुत व्यथित है 
जब रोक नहीं सकते
मानवता की लाश को
हर गली चौराहे पर 
दिन-प्रतिदिन गिरने से
तो हर बात का
श्रेय भी क्यूँ लेते हो 
छोड़ ही दो न 
हमें अकेला हमारे हाल पर 
प्लीज फॉर योर ओन सेक 
जीने दो हमें चैन से अब 
तुम्हारे नाम के बिना!
© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित