सोचती हूँ
एक दिन,
खुद ही, नोच लूँ
बोटी-बोटी अपनी
और भिजवा दूँ
सारे चील-कौवों को
पाऊँ मुक्ति
स्त्री-देह के
अभिशाप से
न मरूँगी रोज फिर
उन गन्दी निगाहों से
हर घिनौने स्पर्श का
अब घोंट दूंगी
मैं ही गला
क्या विश्वास,
कैसी मर्यादा
हर राह यहाँ
किसी ने
अपना बन
ही छला
हाँ, तुम जीत जाओगे
अपने पौरुष के अभिमान से
करोगे चर्चा, अपने हुनर की
स्त्रियों के बेधड़क अपमान से
ये दुनिया तुम्हारी
तुमसे और भी
कितने हैं बाक़ी
इधर एक अकेली स्त्री
जिसके, ज़िंदगी और मौत के
क्या हैं मानी
सुना है न
'अंत भला तो सब भला'
- प्रीति 'अज्ञात'
** ये रचना आत्महत्या की प्रवृत्ति का समर्थन नहीं करती बल्कि उन पुरुषों के लिए एक 'सोच' पैदा करने की उम्मीद है. जो स्त्री (बच्ची को भी) को 'देह' के अतिरिक्त देख ही नहीं पाते. वे ये कैसे भूल जाते हैं कि उन्होंने एक स्त्री की कोख से ही जन्म लिया है, जिसे वो आज 'माँ' कहते हैं. एक बहिन भी होगी उन घरों में, पत्नी/प्रेमिका और बेटी भी हो सकती है. ये पैग़ाम आपकी 'माँ', आपकी 'पत्नी', आपकी प्रेमिका, आपकी 'बेटी' की तरफ से है, आपके लिए. किसी पर अपनी गंदी निगाहें डालने से पहले एक बार उनके चेहरे जरूर याद कर लीजियेगा. यूँ ये अपराध ख़त्म होने की उम्मीद बिलकुल भी नहीं, जिन्हें सजा का कोई डर नहीं वो दूसरों को और भी भयभीत करते हैं.
- प्रीति 'अज्ञात'
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