समय रहते माँ की सीख, समझ लेनी चाहिए! एक रचना, हर आयु की स्त्री को समर्पित -
माँ हरदम कहतीं
दुनिया उतनी अच्छी नहीं
जितनी तुम माने बैठी हो
और मैं तुरत ही
चार अच्छे दोस्तों के नाम
गिना दिया करती
माँ ये भी समझातीं
हरेक पे झट से विश्वास न करो
जांचो-परखो, फिर आगे बढ़ो
और मैं उन्हें शक्की मान
रूठ जाया करती
माँ आगे बतातीं
आँखों की गंदगी पढ़ना
किताबों में नहीं लिखा होता
मैं फिर भी उन पन्नों में घुस
बेफ़िज़ूल ख़्वाब सजाया करती
माँ थकने लगीं, ये कहते हुए
तेरी चिंता है बेटा
औ' जमाने का डर भी
यूँ भी तुम्हारा बचपना जाता ही नहीं
मैं जीभ निकाल, खी-खी
हंस दिया करती
कि जाओ मैं बड़ी होऊंगी ही न कभी
इन दिनों मैं
हैराँ, परेशां भटकती
अपने ही देश में
अपनी बेटी का हाथ
कस के थामे
देखती हूँ आतंक
दीवारों की चीखों का
भयभीत हूँ
इर्दगिर्द घूमते
काले सायों से
दिखने लगे
लाशों के ढेर पर बैठे
सफेदपोश, मक्कार चेहरे
जिनके लिए है ये मात्र 'घटना'
खुद पर घटित न होने तक
सुबक पढ़ती हूँ अचानक
और मनाती हूँ मातम
अपने 'होने' का
माँ, तुम ठीक ही कहतीं थीं हमेशा
सामान्य तौर पर
यही तो सच है, इस समाज का
तुमने 'दुनिया' देखी थी
और मैं अपवादों को
अपनी 'सारी दुनिया' मान
सीने से लगाए बैठी थी
देखो न, अब मैं भी
दोहराने लगीं हूँ यही सब
अपनी ही बेटी के साथ
सीख गई हूँ बड़बड़ाना,
औ' हँसते-हँसते रो देना
समाचारों को देख
खीजती-चीखती भी हूँ
पागलपन की हद तक!
माँ आजकल, कुछ नहीं कहतीं
बस, उदास चेहरा लिए
हैरानगी से देखतीं है मुझे!
- © 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित
सामयिक संवेदना ...सुन्दर ...
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