हाँ, अब डर नहीं लगता
ज़िंदगी या मौत से
ये तब ही होता है
जब हमारे न होने पर
किसी और की
सलामती की फ़िक्र बाकी हो
या फिर फ़र्क पड़ता हो
किसी को हमारी
गैर-मौज़ूदगी का.
पर एक दिन
छन्न-सी आवाज़ होगी
भीतर ही कहीं
और टूट जाएगा
सब भरम तुम्हारा
जान जाओगे, कि
अविश्वास की पट्टी बाँधे
एक-एक कर
सभी करना चाहते हैं
तुमसे उम्र-भर को किनारा.
हाय दुर्भाग्य तेरा !
रह सकते हैं
सब तुम बिन भी
कुछ ज़्यादा ही आराम से
तो क्या ? जो जी लिए
कुछ पल खुशी के, उन्होंने
तेरी सुबहो-शाम से.
फ़िक्र न कर, उसके एवज में वो
छलका देंगे, चंद आँसू, गाहे-बगाहे
तेरी ही 'पुण्यतिथि' पर
पर इतना तो तय-सा ही है, कि
अब 'तुम्हें' मौत से डर नहीं लगेगा.
बहुत बुरा मंज़र होगा
कुछ दिनों के लिए
छलनी हो बिखर जो जाएगा
नाज़ुक ये हृदय तुम्हारा
होगी असह्य वेदना भी
छटपटाओगे दिन-रात, यादों के
उसी श्वेत ताजमहल में.
जब-जब समेटना चाहोगे
उन अपने टुकड़ों को
उठेंगीं कई घृणित निगाहें एक-साथ
कोसेंगीं जी-भर के तुम्हें
फिर बिखरा देंगीं
हमेशा के लिए
छिटककर और भी.
मेरी मानो तो, छोड़ ही देना उन्हें तुम
जीवन का सबक समझकर
शायद कुछ वर्ष और भी गुजरें
बेहद उदासी और अवसाद में
कुछ लम्हे राहें भी तकोगे
उसी अनिश्चित आस में.
पुरानी आदत जो ठहरी,
सो झाँकोगे भी कई दफे
उसी ना-उम्मीदी वाली खिड़की से
जहाँ न आया है कोई न आएगा
पर इस बार अकेले होकर भी
तुमको इस एकांत में डर नही लगेगा.
फिर यूँ ही अचानक एक दिन
जीने लगोगे, एक मजबूर प्रण लेकर
हल्की सूनी, धीर-गंभीर, काली-गड्ढेदार
अधूरी इन्हीं आँखों में
मोतियाबिंद से वही इक्का-दुक्का
धुँधलाते हुए ख्वाब समेटकर
रोया करोगे तन्हाई में भी कभी
आसमाँ-सी नीली तारों वाली
उसी पसंदीदा दीवार से
अपना माथा टेककर
ज़रा सी आहट होते ही, पोंछोंगे आँसू
ओढ लोगे नक़ाब तुरत ही
उसी फीकी-सी हँसी का
मिलोगे मुस्कुराकर, इस बार भी
वही पहले की तरह सबसे.
अरे, सामाजिक प्राणी भी तो हो
अब भी निभाना ही होगा अपना ये धर्म
हाँ, ज़ीनी ही होगी ये दोहरी ज़िंदगी तुम्हें
पर हमेशा के लिए निश्चिंत
उम्मीदों से कोसों दूर
दफ़ना देना अपने सारे ख़्वाब
अपनी ही दिल की ज़मीं को खुरचकर
और देखना तब तुम्हें फिर कभी भी
'मौत' से डर नहीं लगेगा !
प्रीति 'अज्ञात'
ज़िंदगी या मौत से
ये तब ही होता है
जब हमारे न होने पर
किसी और की
सलामती की फ़िक्र बाकी हो
या फिर फ़र्क पड़ता हो
किसी को हमारी
गैर-मौज़ूदगी का.
पर एक दिन
छन्न-सी आवाज़ होगी
भीतर ही कहीं
और टूट जाएगा
सब भरम तुम्हारा
जान जाओगे, कि
अविश्वास की पट्टी बाँधे
एक-एक कर
सभी करना चाहते हैं
तुमसे उम्र-भर को किनारा.
हाय दुर्भाग्य तेरा !
रह सकते हैं
सब तुम बिन भी
कुछ ज़्यादा ही आराम से
तो क्या ? जो जी लिए
कुछ पल खुशी के, उन्होंने
तेरी सुबहो-शाम से.
फ़िक्र न कर, उसके एवज में वो
छलका देंगे, चंद आँसू, गाहे-बगाहे
तेरी ही 'पुण्यतिथि' पर
पर इतना तो तय-सा ही है, कि
अब 'तुम्हें' मौत से डर नहीं लगेगा.
बहुत बुरा मंज़र होगा
कुछ दिनों के लिए
छलनी हो बिखर जो जाएगा
नाज़ुक ये हृदय तुम्हारा
होगी असह्य वेदना भी
छटपटाओगे दिन-रात, यादों के
उसी श्वेत ताजमहल में.
जब-जब समेटना चाहोगे
उन अपने टुकड़ों को
उठेंगीं कई घृणित निगाहें एक-साथ
कोसेंगीं जी-भर के तुम्हें
फिर बिखरा देंगीं
हमेशा के लिए
छिटककर और भी.
मेरी मानो तो, छोड़ ही देना उन्हें तुम
जीवन का सबक समझकर
शायद कुछ वर्ष और भी गुजरें
बेहद उदासी और अवसाद में
कुछ लम्हे राहें भी तकोगे
उसी अनिश्चित आस में.
पुरानी आदत जो ठहरी,
सो झाँकोगे भी कई दफे
उसी ना-उम्मीदी वाली खिड़की से
जहाँ न आया है कोई न आएगा
पर इस बार अकेले होकर भी
तुमको इस एकांत में डर नही लगेगा.
फिर यूँ ही अचानक एक दिन
जीने लगोगे, एक मजबूर प्रण लेकर
हल्की सूनी, धीर-गंभीर, काली-गड्ढेदार
अधूरी इन्हीं आँखों में
मोतियाबिंद से वही इक्का-दुक्का
धुँधलाते हुए ख्वाब समेटकर
रोया करोगे तन्हाई में भी कभी
आसमाँ-सी नीली तारों वाली
उसी पसंदीदा दीवार से
अपना माथा टेककर
ज़रा सी आहट होते ही, पोंछोंगे आँसू
ओढ लोगे नक़ाब तुरत ही
उसी फीकी-सी हँसी का
मिलोगे मुस्कुराकर, इस बार भी
वही पहले की तरह सबसे.
अरे, सामाजिक प्राणी भी तो हो
अब भी निभाना ही होगा अपना ये धर्म
हाँ, ज़ीनी ही होगी ये दोहरी ज़िंदगी तुम्हें
पर हमेशा के लिए निश्चिंत
उम्मीदों से कोसों दूर
दफ़ना देना अपने सारे ख़्वाब
अपनी ही दिल की ज़मीं को खुरचकर
और देखना तब तुम्हें फिर कभी भी
'मौत' से डर नहीं लगेगा !
प्रीति 'अज्ञात'
No comments:
Post a Comment