आज वो अकेली है और कुछ अनमनी भी
देखा उसने खुद को दर्पण में
घबरा गई, अपने ही विकृत झुर्रीदार प्रतिबिंब से
तभी अचानक ही फिसलकर
माथे पे गिरी एक लट
खुद को ही रंगे जाने की पुरज़ोर
सिफ़ारिश करने लगी.
ठीक ही तो कहता है वो
अब सपनों की उम्र नहीं तेरी
काँपते मन से, अचकचाकर
दौड़कर खोला है उसने
अपनी ख़्वाबों की अलमारी को
हर खांचा, खचाखच भरा हुआ
एक अधूरेपन की कहानी-सी कहता.
सबसे पहले फेंका उसने
'ज़िंदगी' का सपना
हाँ, यही स्वप्न तो जन्म-दाता है
आकांक्षाओं का, अपेक्षाओं का
फिर उछाल बाहर किए
झाँकते, मटमैले से, घिनौने सपने
जिन पर लगे हुए जाले और घूमती मकड़ी
उनके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न-सा लगा
बरसों से भटक रहे हैं.
कर दी है, खाली उसने पूरी अलमारी
भर देगी फिर इसे छकाछक
कर्तव्यों की चादरों से
पर ये क्या, अभी भी कोने में
दूबका हुआ एक मायूस ख्वाब बैठा है
उसके सहमे हुए बचपन की तरह
जीना चाहता है, चीख रहा है
न निकालने की गुहार करते हुए.
जा, आज से तू
खबरदार, जो अब कभी पला
इन पलकों के भीतर
और फिर एक गुस्सैल-सी माँ की तरह
धक्के मारकर खींचती हुई
ले आई वो उस आख़िरी ख़्वाब को भी घसीटकर
धकेल दिया है उसे जबरन ही
उस गंदे, बदबूदार कचरे के डिब्बे में
कि वही उसकी सही जगह थी.
हाँ, अपने हाथ झाड़कर,
डेटोल से धो भी लिए हैं उसने
उन मरते सपनों की
सड़न ही कुछ ऐसी थी
पर रो रही है, बेतहाशा
अपने इस 'ज़िंदा' बचपन की
असामयिक मौत पर
जान जो चुकी है
हर उखड़ी साँस पैदा करेगी
शब्दों में ढली, चुभती इक टीस को
पर ये अलमारी अब यूँ ही
खाली रहेगी, उम्र-भर
ठीक उसके अचानक ही
गंभीरता का जामा पहनाए गए
इस रंगहीन जीवन की तरह....!!
प्रीति 'अज्ञात'
देखा उसने खुद को दर्पण में
घबरा गई, अपने ही विकृत झुर्रीदार प्रतिबिंब से
तभी अचानक ही फिसलकर
माथे पे गिरी एक लट
खुद को ही रंगे जाने की पुरज़ोर
सिफ़ारिश करने लगी.
ठीक ही तो कहता है वो
अब सपनों की उम्र नहीं तेरी
काँपते मन से, अचकचाकर
दौड़कर खोला है उसने
अपनी ख़्वाबों की अलमारी को
हर खांचा, खचाखच भरा हुआ
एक अधूरेपन की कहानी-सी कहता.
सबसे पहले फेंका उसने
'ज़िंदगी' का सपना
हाँ, यही स्वप्न तो जन्म-दाता है
आकांक्षाओं का, अपेक्षाओं का
फिर उछाल बाहर किए
झाँकते, मटमैले से, घिनौने सपने
जिन पर लगे हुए जाले और घूमती मकड़ी
उनके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न-सा लगा
बरसों से भटक रहे हैं.
कर दी है, खाली उसने पूरी अलमारी
भर देगी फिर इसे छकाछक
कर्तव्यों की चादरों से
पर ये क्या, अभी भी कोने में
दूबका हुआ एक मायूस ख्वाब बैठा है
उसके सहमे हुए बचपन की तरह
जीना चाहता है, चीख रहा है
न निकालने की गुहार करते हुए.
जा, आज से तू
खबरदार, जो अब कभी पला
इन पलकों के भीतर
और फिर एक गुस्सैल-सी माँ की तरह
धक्के मारकर खींचती हुई
ले आई वो उस आख़िरी ख़्वाब को भी घसीटकर
धकेल दिया है उसे जबरन ही
उस गंदे, बदबूदार कचरे के डिब्बे में
कि वही उसकी सही जगह थी.
हाँ, अपने हाथ झाड़कर,
डेटोल से धो भी लिए हैं उसने
उन मरते सपनों की
सड़न ही कुछ ऐसी थी
पर रो रही है, बेतहाशा
अपने इस 'ज़िंदा' बचपन की
असामयिक मौत पर
जान जो चुकी है
हर उखड़ी साँस पैदा करेगी
शब्दों में ढली, चुभती इक टीस को
पर ये अलमारी अब यूँ ही
खाली रहेगी, उम्र-भर
ठीक उसके अचानक ही
गंभीरता का जामा पहनाए गए
इस रंगहीन जीवन की तरह....!!
प्रीति 'अज्ञात'
बहुत सुन्दर .. भावमयी रचना है ..
ReplyDeleteआभार, संजय जी !
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