न जाने क्यूँ लिखा करती हूँ मैं
जो झूठ लिखूं तो लिखने का मतलब ही क्या
जो सच कहा, तो ढेरों सवाल होंगे
हाँ, जानना चाहते हैं सब
दूसरों के शब्दों के पीछे छिपा मर्म
समझ जाते हैं कुछ तो बिना कहे ही
और बाकी ताका करते हैं
सवालिया नज़रों से, कि उनके संदेह पर
सत्य का ठप्पा लग सके
जकड़ना चाहते हैं
प्रश्नों के ऑक्टोपस में उलझाकर
खड़े हो जाते हैं, दूर कहीं
कई प्रश्नचिन्ह उछाल
गले में फेंके फंदे की तरह
गोया कह रहे हों
'इतना बोलना ज़रूरी है क्या'
हैरान होती हूँ, ये देखकर
जब लोग कहते हैं
ये सब हमसे जुड़ा ही नहीं
यदि जुड़े ही नहीं, तो महसूसा कैसे ?
किसने ढलवाया, उन्हें अहसास बनकर ?
कैसे चढ़ गया उन पर शब्दों का कवच ?
कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में तो
जिया ही होगा तुमने इसे,
तभी तो भाव उपजे मन में संवेदना बन
और खुद ही बिखरते चले गये
अभिव्यक्ति की सहज स्याही में घुलकर !
और जो बिन अनुभूति ही कहते रहे हो तुम
तो क्या अर्थ रह गया उसके कहने का ?
सोच की उड़ानें भी तो 'जी' लेना ही है
सपने, यथार्थ, जीवन, प्रेम, दुख, दर्द
मिलन, विरह, आशा, निराशा, विश्वास, धोखा
अनगिनत कितनी ही पीड़ा या सुख से
गुज़रते हैं सभी, अपनी-अपनी तरह
अकेले तुम ही नहीं हो, इसे झेलने वाले
ये सब हिस्सा हैं, हम सभी की ज़िंदगी का
अंतर है तो इतना ही, कि तुम कह सके
और इन पर गुजरती रही....!
तो फिर, किससे छुपाना और क्यूँ ?
जो हिम्मत नहीं, सच कह सकने की
तो न लिखो कुछ, वही बेहतर होगा !
पर ये न कहो मुँह छुपाकर, कि 'ये मेरा नहीं' !
स्वीकारो उसे शान से, बता दो सबको
'हम लिखते तभी हैं, जब वो छूकर गया है हमसे'
चाहे वो किसी का भी सच हो
पर जिया है हमने इसे ठीक अपनी तरह
वरना फ़र्क़ ही क्या रह गया, 'तुम' में और 'हम' में
और ये भी कह देना, उसी में जोड़कर
हाँ, मेरी आपबीती बताने में भी
मुझे कोई शर्मिंदगी नहीं होती
जिसे नहीं भाता ये दो टूक सच,
वो या तो लिखना छोड़ दे या पढ़ना !
प्रीति 'अज्ञात'
जो झूठ लिखूं तो लिखने का मतलब ही क्या
जो सच कहा, तो ढेरों सवाल होंगे
हाँ, जानना चाहते हैं सब
दूसरों के शब्दों के पीछे छिपा मर्म
समझ जाते हैं कुछ तो बिना कहे ही
और बाकी ताका करते हैं
सवालिया नज़रों से, कि उनके संदेह पर
सत्य का ठप्पा लग सके
जकड़ना चाहते हैं
प्रश्नों के ऑक्टोपस में उलझाकर
खड़े हो जाते हैं, दूर कहीं
कई प्रश्नचिन्ह उछाल
गले में फेंके फंदे की तरह
गोया कह रहे हों
'इतना बोलना ज़रूरी है क्या'
हैरान होती हूँ, ये देखकर
जब लोग कहते हैं
ये सब हमसे जुड़ा ही नहीं
यदि जुड़े ही नहीं, तो महसूसा कैसे ?
किसने ढलवाया, उन्हें अहसास बनकर ?
कैसे चढ़ गया उन पर शब्दों का कवच ?
कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में तो
जिया ही होगा तुमने इसे,
तभी तो भाव उपजे मन में संवेदना बन
और खुद ही बिखरते चले गये
अभिव्यक्ति की सहज स्याही में घुलकर !
और जो बिन अनुभूति ही कहते रहे हो तुम
तो क्या अर्थ रह गया उसके कहने का ?
सोच की उड़ानें भी तो 'जी' लेना ही है
सपने, यथार्थ, जीवन, प्रेम, दुख, दर्द
मिलन, विरह, आशा, निराशा, विश्वास, धोखा
अनगिनत कितनी ही पीड़ा या सुख से
गुज़रते हैं सभी, अपनी-अपनी तरह
अकेले तुम ही नहीं हो, इसे झेलने वाले
ये सब हिस्सा हैं, हम सभी की ज़िंदगी का
अंतर है तो इतना ही, कि तुम कह सके
और इन पर गुजरती रही....!
तो फिर, किससे छुपाना और क्यूँ ?
जो हिम्मत नहीं, सच कह सकने की
तो न लिखो कुछ, वही बेहतर होगा !
पर ये न कहो मुँह छुपाकर, कि 'ये मेरा नहीं' !
स्वीकारो उसे शान से, बता दो सबको
'हम लिखते तभी हैं, जब वो छूकर गया है हमसे'
चाहे वो किसी का भी सच हो
पर जिया है हमने इसे ठीक अपनी तरह
वरना फ़र्क़ ही क्या रह गया, 'तुम' में और 'हम' में
और ये भी कह देना, उसी में जोड़कर
हाँ, मेरी आपबीती बताने में भी
मुझे कोई शर्मिंदगी नहीं होती
जिसे नहीं भाता ये दो टूक सच,
वो या तो लिखना छोड़ दे या पढ़ना !
प्रीति 'अज्ञात'
कल 26/04/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
शुक्रिया, यशवंत जी !
Deleteसुन्दर ......
ReplyDeleteधन्यवाद !
Deleteद्वैत और अद्वैत के बीच से जगे ये प्रश्न प्रायः गहन दर्शन का मार्ग प्रशस्त करते हैं. सुन्दर शब्दों में गढ़ी अच्छी अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार आपका !
Deleteसही कहा आपने कई बार कोई भाव बस छू कर गुजरता है और हम उसमें डूब जाते हैं
ReplyDeleteजी, शुक्रिया :)
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