तुम्हें, याद तो है ना ?
जब अचानक ही
थाम लिया था हाथ
मैनें, तुम्हारा
और, बहुत देर तक बैठी
यूँ ही बतियाती रही, तुमसे
किसी बहाने से.
तुम भी तो कैसे
आह्लादित हो
इस स्पर्श से
मन ही मन
मुस्कुरा रहे थे.
तुम्हारे दिल के हर शब्द
तब, इन लकीरों से होकर
बरबस ही मुझ तक,
खिंचे चले आ रहे थे.
मैं भी, जाने क्या-क्या
कहती रही, बावरी सी
जिनका कोई वास्ता ही ना था
तुम्हारी उन लकीरों से
वो तो सिर्फ़ एक ज़रिया भर थीं
मेरी ख़ामोश मोहब्बत को
तुम तक पहुँचाने का.
पर, सच तो यह है
कि मैं मिटा देना चाहती थी
अपने हाथों की सारी
मनहूस लकीरों को
कोरा कर देना चाहती थी
उसी वक़्त, हाथ मेरा.
फिर खुश होकर
छाप लेती
वही रेखाएँ
जो तुम्हारे, हाथों में थीं.
'मैं', 'मैं' रहती
और ना 'तुम'
'तुम' रहते
'हम'
एक ही हो जाते ना,
उसी पल में
सदा के लिए !!
प्रीति 'अज्ञात'
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