Wednesday, July 17, 2013

Seeta Ka Sangharsh

सीता का संघर्ष 

सीता का संघर्ष 




अश्रुपूरित नज़रों से तकती रही, राहें तेरी सिर्फ़ एक दिलासे का ही तो था, बेसब्री से इंतज़ार, जो मिटा देता,बस इक पल में ही, दिल के सारे रंज़ोग़म और रहता प्रेम का हर सुगंधित लम्हा बस यूँ ही बरकरार. पर ना जाने कैसे हुए तुम इतने निष्ठुर, निर्मम,निर्मोही कि इक कदम भी ना चल सके खुद मुझ तक और हारकर मायूस पलकों ने भी, ढकेल ही दिया, आकांक्षाओं के हर, समंदर को वापिस भीतर देखते रहे , तुम दूर से ही तमाशाई बन. उलझे रहे, खुद की ही बनाई उलझनों की चादरों में तार-तार करते गये उन्हें और एक-एक कर उधेड़ डाले वो सारे धागे भी जो साथ मिलकर, हमने ही कभी बुने थे अपने ख्वाबों के उस सुनहरे से करघे पर ! नहीं महसूसा तुमने कोई भी दर्द, और ना ही वास्ता था तुम्हे ज़रा भी मेरी इस छटपटाहट से तुम तक पहुँचने की मेरी व्याकुलता , इस निश्छल, निस्वार्थ प्रेम ने भी नहीं कचोटा, तुम्हारी अंतरात्मा को, एक पल को भी बल्कि तुम तो तलाशते रहे, हर बार ही, एक नया आक्षेप तो क्या, जो छलनी हुआ, किसी का अथाह विश्वास, तुम्हारा 'अहं' तो पुष्ट होता रहा ना ! कितनी ही बार, फेंकी गई, अवांछित सवालों के इस घिनौने, भयावह दावानल में जिनका कोई सरोकार ही नहीं था, हमारी इस खूबसूरत, खिलखिलाती दुनिया से. जवाब जानना चाहते हो ना तुम, तो सुनो...सच कहूँ रोम-रोम जलता है मेरा वहाँ, 'भय' और 'वितृष्णा' से 'भय' इस अलौकिक प्यार को खो देने का है, और 'वितृष्णा' असहनीय सी, मुझे अपने आप से ही हो गई है कि क्यूँ ना बन सकी, तुम सी अब-तलक़ मेरी हर कोशिश आज भी नाकाम ही क्यूँ है तुम्हारी शंकाओं की गहराई ने गिरा दिया है मुझे अपनी ही नज़रों से पटककर, इस धरा पर, खंडित होने के लिए हैरां हूँ, तुम्हारे इस अप्रत्याशित से उद्घोष से, कि आज मुक्त कर दिया है, तुमने मुझे, उन सारे बंधनों से छोड़ दिया है, भेड़ियों के इस शहर में निपट, अकेली ही मुझे कराहता हृदय, और पैर पटकती खामोशी अब भी प्रयासरत है तुम तक पहुँचने को भरसक, तरसती हैं आज भी ये निगाहें यूँ तो जाने की अनुमति, दे दी है तुमने मुझे बिन पूछे ही




पर तुम ही कहो, कहाँ जाऊं ?

कहाँ जाऊं ?? कहाँ जाऊं, अब मैं तुमसे बिछुड़कर ??? आख़िर सबसे, बिछूड़ने के बाद ही तो तुमको था पाया, मैनें........! प्रीति 'अज्ञात'

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