Tuesday, July 30, 2013

Apathit Gaddyansh

अपठित गद्दयांश  
जीवन एक 'अपठित गद्दयांश' ही तो है 
जिसके हर सवाल पर खीजकर 
वापिस जाना होता है, और ना चाहते हुए भी 
पलटकर देखते हैं, हम वही पृष्ठ. 
ढूँढते हैं, प्रतिउत्तर उन्हीं शब्दों के, 
रहस्यमयी मायावी से मायाजाल में, 
जिनसे जूझकर बड़ी परेशानी से,  
पहले प्रश्न का, हल ढूँढ पाया था. 
सवालों-जवाबों सी उलझी, इस दुनिया में 
हर बार पलटना होता है, वही पीला 'पन्ना' 
'पन्ना' जो यादें हैं, हमारी 
'ज़िंदगी' के हर मोड़ पर आती उलझने 
ये सवाल-जवाब सी ही तो हैं, 
जिनसे हारकर, हम अतीत की ओर 
झाँकने लगते हैं, और लेना चाहते हैं 
अपनी ही ग़लतियों से सब़क. 
कई बार पा भी लेते हैं, कुछेक हल 
और प्रसन्नचित्त हो, दो कदम आगे 
बढ़ उठते हैं, प्रश्नपत्र के अगले प्रश्न की तरफ. 
पर अनायास ही, ठिठक जाते हैं, जब नज़रें 
घड़ी की सुइयों की तरफ उठती हैं. 
और छूट ही जाते हैं, कुछ सवाल 
जीवन के अनसुलझे रिश्तों की तरह 
क्योंकि, समयाभाव के कारण 
अब पलटने का वक़्त नही ! 
छोड़ ही देना होता है, कुछ अधूरा सा, 
पूरा ना कर पाने की क़सक लिए, साथ दिल में. 
और अंत में 'काग़ज़' पर दिखाई देते हैं 
वही कमज़ोर 'अंक', जो हमारे इस 
जीवन रूपी प्रश्नपत्र को, 
ठीक से ना समझ पाने की पुरज़ोर गवाही देते हैं. 
पर नहीं समझ पाता, कोई भी उस राख की तपिश को 
जो निकली तो अभी ही है, 
इस पंचतत्व में विलीन होते शरीर से 
पर बरसों से धधक रही थी, भीतर ही 
उन अनगिनत अनुत्तरित प्रश्नों की अग्नि से ! 

प्रीति 'अज्ञात' 

Monday, July 29, 2013

Sach Yahi Hai ....

सच यही है... 
वो टूटी, बिखरी, चकनाचूर हुई और स्वत: ही समेट लिए, उसने अनगिनत फैले, सारे ही टुकड़े, जो छलनी थे, अपनों ही के अनवरत प्रहारों से.
फिर देखा, उस अनंत आकाश की ओर, जो आज बहुत ही भयावह सा लगा उसे, अट्टाहास लगा, उपहास बनाता हुआ उसके इस असीम प्रेम का. 'प्रेम', जो छलावा नही, 'शाश्वत सत्य' है, उसके विलीन से होते, इस निर्जीव जीवन का. इसका ना कोई ओर है, ना छोर ठहर सा गया है, आकर उम्र भर के लिए जैसे. जिसका आभास, किसी की उपस्थिति या अनुपस्थिति का मोहताज़ नही. ये व्यापक है, अथाह गहरा सागर की तरह. इसके मोती स्वरूप को पाने के लिए जाना ही होगा तुम्हें, अंतत: भीतर तक. पर यूँ, असमंजस में ना रहो, ना डरो, ठहरी नदी की इन हलचलों से ना रूको आज, किसी भी पीड़ा को थामे तो क्या हुआ जो मन उद्द्विग्न है किसी बात से, सभी हैं, बेचैन, परेशान, अपने-अपने हालात से ! तो, उठो, मुस्कुराओ, बाहें पसारो, और
मात्र इसके बाहरी स्वरूप को देखकर स्वीकार ही लो, अपना भी सच जो ठीक वैसा ही है, जैसा कि उसका. जाओ, मिलकर देखो, दोनों ही उस आसमान की तरफ जिसने अब भी संभाल के रखा है, तुम्हारे लिए अपनी मुट्ठी में एक-एक तारा ! प्रीति 'अज्ञात'

Sunday, July 21, 2013

Jab tum haste ho...!

जब तुम हंसते हो ! 
 
जब तुम हंसते हो 
तो मेरे मन में भी उसी वक़्त 
खिल उठती हैं 
मोगरे की हज़ारों कलियाँ 
और महक उठती हूँ मैं 
उन कदमों की हटें सुनकर 
और लगता है, कि इस 
हँसी का रास्ता 
अभी मेरे दिल से ही तो 
होकर गुजरा है. 
उस वक़्त 
महसूस करती हूँ तुम्हें 
अपने बेहद पास 
और जी लेती हूँ इस एहसास को 
ठीक उसी तरह 
जैसे मेरे लबों से होकर 
तुम मुस्कुराए हो. 
गर्व सा हो उठता है, खुद पर 
बस ये सोचकर ही, कि 
इस मुस्कुराहट के पीछे 
कहीं मैं छुपी हूँ. 
और अब, मर मिटी हूँ मैं 
तेरे इसी चेहरे पर 
जो सामने ना हो, तो भी 
दिखाई दे जाता है 
हर आईने में, बस तेरा ही तो 
अक्स नज़र आता है 
वादा है अब ये मेरा, तुझसे 
रहूंगी उम्र भर, हर जनम 
यूँ ही साथ हरपल तेरे 
क्या करूँ, कुछ भी ना रहा 
अब बस मैं मेरे 
मुस्कानों के तार, जुड़ गये हैं 
लिपटकर बेपनाह 
एक-दूसरे से 
कुछ इस तरह अब 
तेरे - मेरे. 
 

प्रीति 'अज्ञात'