अपठित गद्दयांश
जीवन एक 'अपठित गद्दयांश' ही तो है
जिसके हर सवाल पर खीजकर
वापिस जाना होता है, और ना चाहते हुए भी
पलटकर देखते हैं, हम वही पृष्ठ.
ढूँढते हैं, प्रतिउत्तर उन्हीं शब्दों के,
रहस्यमयी मायावी से मायाजाल में,
जिनसे जूझकर बड़ी परेशानी से,
पहले प्रश्न का, हल ढूँढ पाया था.
सवालों-जवाबों सी उलझी, इस दुनिया में
हर बार पलटना होता है, वही पीला 'पन्ना'
'पन्ना' जो यादें हैं, हमारी
'ज़िंदगी' के हर मोड़ पर आती उलझने
ये सवाल-जवाब सी ही तो हैं,
जिनसे हारकर, हम अतीत की ओर
झाँकने लगते हैं, और लेना चाहते हैं
अपनी ही ग़लतियों से सब़क.
कई बार पा भी लेते हैं, कुछेक हल
और प्रसन्नचित्त हो, दो कदम आगे
बढ़ उठते हैं, प्रश्नपत्र के अगले प्रश्न की तरफ.
पर अनायास ही, ठिठक जाते हैं, जब नज़रें
घड़ी की सुइयों की तरफ उठती हैं.
और छूट ही जाते हैं, कुछ सवाल
जीवन के अनसुलझे रिश्तों की तरह
क्योंकि, समयाभाव के कारण
अब पलटने का वक़्त नही !
छोड़ ही देना होता है, कुछ अधूरा सा,
और अंत में 'काग़ज़' पर दिखाई देते हैं
वही कमज़ोर 'अंक', जो हमारे इस
जीवन रूपी प्रश्नपत्र को,
ठीक से ना समझ पाने की पुरज़ोर गवाही देते हैं.
पर नहीं समझ पाता, कोई भी उस राख की तपिश को
जो निकली तो अभी ही है,
इस पंचतत्व में विलीन होते शरीर से
पर बरसों से धधक रही थी, भीतर ही
उन अनगिनत अनुत्तरित प्रश्नों की अग्नि से !
प्रीति 'अज्ञात'