Monday, October 13, 2014

काश ! यूँ होता....या न होता ? :O

काश, मैं भी पुरुष होती !
खड़ी हो जाती लाइन में बेझिझक
पहचाने चेहरों को ढूँढे बगैर
शाम होते ही, पहुँच जाती
किसी गली के नुक्कड़ पे
हँसती जोरों से, बेमतलब ठहाके लगाती
चिल्लाकर पुकारती, अपने दोस्तों को
नि:संकोच, 'अबे, साले' कहकर.
घूरती हर आती-जाती लड़की को
और फिर कनखियों से, मैं भी मुस्कुराती.

जहर ही सही, पर चखती,
एक बार तेरी तरह
सिगरेट के कश, कभी मैं भी लगाती
चढ़ जाती दौड़कर, किसी भीड़ भरे डब्बे में
या मजबूरी में लटककर ही जाती
निकल जाती मुँह अंधेरे 
क्रिकेट का बल्ला उठाकर
और देर रात घर आती
न देनी पड़ती सफाई
न होती कभी पिटाई
न करता कोई चुगली मेरी
न बात-बात पे यूँ रो जाती!

न लेती अनुमति किसी की
जो जी में आए, करती-कराती
तू आए न आए, कौन जाने
मैं ही खुद, तुझसे मिलने आ जाती
काश, मैं पुरुष होती
तो इतनी बंदिशें, 
झूठी तोहमतों में बदलकर
दुनिया मुझ पर न लगा पाती
काश, मैं पुरुष होती
तो बेखौफ़ सबकी अकल ठिकाने लगाती
खुद से आसानी से यूँ
बार-बार ना हार जाती
...............................
पर फिर ये भी तो होता न, कि :P
उलझ जाती मैं
गृहस्थी के जंजाल में
बीवी के बवाल में
दुनिया के मायाजाल में
ज़िम्मेदारियाँ और लोगों के ताने
कर देते जीना मुश्किल मेरा
और हँसना पड़ता मुझे हर हाल में
लो फँस गये न, हम खुद
अपने ही फेंके, इस घटिया से जाल में !
उफ्फ, अब 'तनाव' दूर करने के लिए
करनी पड़ेगी शॉपिंग, जल्दी से भागकर
सिनेमाघर के नज़दीक वाले 
अपने उसी पसंदीदा 'मॉल' में ! :D

- प्रीति 'अज्ञात'

6 comments:

  1. यूं होता तो क्या होता...

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  2. hahaha ant to bahut hee sundar kiyaa aapne preeti ji...

    accha hai aap naari hee hain ;-)

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  3. सुन्दर रचना !
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है !

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  4. Bilkul uss janjaal me to padna hi padta...purush hone ki haani jhelani padti... :) bahut umda prastuti !!!

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  5. बहुत खूब...यूँ होने और न होने के नफा और नुकसान को बहुत सहजता और सुंदरता से पिरोया गया है... अच्छी रचना.

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  6. हर किसी का अपना दुःख, अपना सुख ... दूर से सभी सुहाना लगता है पर आपने दोनों तरफ के सच को समझा लिखा .... अच्छा लगा ....

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