Wednesday, October 1, 2014

ज़िंदा हूँ कहीं....अब भी

मेरे हर सवाल का जवाब है वहाँ
कोसा जाता है, जी भर के मुझे
लगते हैं कई मनगढ़ंत आरोप
ठहराकर दोषी सरेआम
उड़ाई जाती है खिल्ली भी
दिया उलाहना हर अपेक्षा को
मारे वीभत्स ताने भी
सिसकती रहीं उम्मीदें
फिर शब्दों ने उडेली
सहानुभूति बटोरती संवेदनाएँ
कि मनुष्यता का हर भरम रहे बाकी !

अब चस्पा किया गया उन्हें
हर गली, नुक्कड़, चौराहे पर
खींचने को भीड़, भर दिए आकर्षक रंग भी
इन सबके बीच, बेझिझक नीलाम होता रहा 'प्रेम'
ढूंढता रहा अंत तक भौंचक्का हो
अपने ख़त्म होने के, आख़िरी निशाँ
कि जितनी बार भी पोंछना चाहा
खींच दी गई और भी लंबी लकीर
जिसके उस पार प्रवेश निषिद्ध था !

कहीं नहीं दिखी न मिल पाने की क़सक
कहीं नहीं था इंतज़ार का बहता आँसू
नहीं थी खुशी मेरे लिए एक पल को भी
खो गया था, हर वादा
गूँथी जा रही, नई पहेलियों के बीच
कसता गया शिकंजा
और टूटा एक कमजोर रिश्ता
पर फिर भी, नहीं गिला तुझसे
नहीं कोई शिक़ायत
हाँ, कहीं नहीं हूँ बाक़ी
पर तेरी हर धधकती कविता का
'विषय' तो हूँ !

- प्रीति 'अज्ञात'

8 comments:

  1. शानदार प्रस्तुति., अच्छी कविता से साक्षात्कार हुआ । मेरे नए पोस्ट
    "एहसास की चुभन "पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है।

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  2. अन्तःस्थिति को दर्शाती एक अच्छी रचना

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  3. भावों से भरी लेखनी

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    1. शुक्रिया, अंजू जी ! आज पहली बार आपको यहाँ देखकर अच्छा लगा ! आते रहिएगा ! :)

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  4. एक भावपूर्ण प्रस्तुति !!

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