'ज़िंदगी' भर 'ज़िंदगी' को, आज़माते रहे
'ज़िंदगी' भर 'ज़िंदगी' से, मात ही खाते रहे.
हादसे कितने भी झेले, उफ़ न की दिल ने कभी
ये भी सच है चुपके से, हर ज़ख़्म सहलाते रहे.
दुश्मनों की क्या ज़रूरत, दोस्त ही कुछ कम नहीं
पिघलेंगे वो मोम बन के, खुद को समझाते रहे.
झूठ और सच की है दुनिया, सच का दामन थाम के
करके उनसे सच की उम्मीद, मन को भरमाते रहे.
गिर के उठे,खुद को संभाला, हौसला न चरमराया
अश्क पलकों में सजे थे, लब मगर मुस्काते रहे.
आरज़ू कितनी थी बाँटी, कितनों के दिल हमने जोड़े
अपने ख्वाबों को खुरचकर, बस कसमसाते रहे.
कश्ती सागर में थी डूबी, तैरने की ज़िद न छोड़ी
टूटी इक पतवार थामे, गोते ही खाते रहे.
क्यूँ नवाज़ेगा 'खुदा' अब, प्यार से इक 'दिल' भला
लेके इसको हाथ में जब, पत्थरों से टकराते रहे.
- प्रीति 'अज्ञात'
'ज़िंदगी' भर 'ज़िंदगी' से, मात ही खाते रहे.
हादसे कितने भी झेले, उफ़ न की दिल ने कभी
ये भी सच है चुपके से, हर ज़ख़्म सहलाते रहे.
दुश्मनों की क्या ज़रूरत, दोस्त ही कुछ कम नहीं
पिघलेंगे वो मोम बन के, खुद को समझाते रहे.
झूठ और सच की है दुनिया, सच का दामन थाम के
करके उनसे सच की उम्मीद, मन को भरमाते रहे.
गिर के उठे,खुद को संभाला, हौसला न चरमराया
अश्क पलकों में सजे थे, लब मगर मुस्काते रहे.
आरज़ू कितनी थी बाँटी, कितनों के दिल हमने जोड़े
अपने ख्वाबों को खुरचकर, बस कसमसाते रहे.
कश्ती सागर में थी डूबी, तैरने की ज़िद न छोड़ी
टूटी इक पतवार थामे, गोते ही खाते रहे.
क्यूँ नवाज़ेगा 'खुदा' अब, प्यार से इक 'दिल' भला
लेके इसको हाथ में जब, पत्थरों से टकराते रहे.
- प्रीति 'अज्ञात'
बहुत ही सुन्दर रचना....शुभकामनाएं प्रीती !!
ReplyDeleteशुक्रिया :)
DeleteBahut hi bhaaawpurn raachna ... Badhayi ,,,!!
ReplyDeleteआभार, आपका :)
Deleteबहुत ही भावनात्मक रचना जो सपाट से लगने वाले जीवन में कई सार्थक संदेश भी दे जाती है। मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।
ReplyDeleteआपका भी बहुत-बहुत धन्यवाद !
Deleteवाह ... बहुत ही सुन्दर और यथार्थ के शेरों से सजी ग़ज़ल ...
ReplyDeleteSundar rachna :)
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