तुम्हारे और मेरे बीच
एक सेतु हुआ करता था
जिस पर चलकर रोजाना ही
विश्वास की गहरी नींव
और स्नेह-जल की फुहारों में
गोता खाते हुए हमारे शब्द
मचलकर एक-दूसरे तक
पहुँच इठलाया करते थे.
बहुत गुमान था, हमें
कभी भी इसके न टूटने का
यूँ तो था ये केवल अपना ही
पर अपनेपन में, हमने गुजरने दिया
कुछ अंजान लोगों को भी इससे होकर
वह दौर ही कुछ ऐसा था
जहाँ आभास तक न था
किसी की मंशा और इस संशय का.
धीरे-धीरे न जाने कितने मुसाफ़िर
चलने लगे, आम रास्ता समझ
हाँ, बहुत ख़ास था ये
बस मेरा-तुम्हारा
पर होता गया मलीन
लोगों की बेरोक-टोक आवाजाही से
भरते रहे सब अपने विचारों की गंदगी
बढ़ता ही गया, अनपेक्षित भार.
देखो न ! आज जब, वही लोग
इस पर हंसते-गुनगुनाते
नज़र आते हैं, तब
हमारे लिए कमजोर हो
डगमगाने लगा है, ये शब्द-सेतु
और अब, मैं और तुम,
बैठे हैं, इसके दोनों सिरों पर
अलग-अलग, बेहद उदास और गुमसूम
भयभीत हैं, उस मंज़र की कल्पना से ही
जब हमारी आँखों के सामने
हमारा अपना 'स्नेह-पुल'
मात्र शब्दों के अभाव में, सिसकता हुआ
चरमरा कर दम तोड़ देगा !
प्रीति 'अज्ञात'
एक सेतु हुआ करता था
जिस पर चलकर रोजाना ही
विश्वास की गहरी नींव
और स्नेह-जल की फुहारों में
गोता खाते हुए हमारे शब्द
मचलकर एक-दूसरे तक
पहुँच इठलाया करते थे.
बहुत गुमान था, हमें
कभी भी इसके न टूटने का
यूँ तो था ये केवल अपना ही
पर अपनेपन में, हमने गुजरने दिया
कुछ अंजान लोगों को भी इससे होकर
वह दौर ही कुछ ऐसा था
जहाँ आभास तक न था
किसी की मंशा और इस संशय का.
धीरे-धीरे न जाने कितने मुसाफ़िर
चलने लगे, आम रास्ता समझ
हाँ, बहुत ख़ास था ये
बस मेरा-तुम्हारा
पर होता गया मलीन
लोगों की बेरोक-टोक आवाजाही से
भरते रहे सब अपने विचारों की गंदगी
बढ़ता ही गया, अनपेक्षित भार.
देखो न ! आज जब, वही लोग
इस पर हंसते-गुनगुनाते
नज़र आते हैं, तब
हमारे लिए कमजोर हो
डगमगाने लगा है, ये शब्द-सेतु
और अब, मैं और तुम,
बैठे हैं, इसके दोनों सिरों पर
अलग-अलग, बेहद उदास और गुमसूम
भयभीत हैं, उस मंज़र की कल्पना से ही
जब हमारी आँखों के सामने
हमारा अपना 'स्नेह-पुल'
मात्र शब्दों के अभाव में, सिसकता हुआ
चरमरा कर दम तोड़ देगा !
प्रीति 'अज्ञात'
एकदम खरी खरी.... सच्चाई बयान करती सुन्दर रचना दी...
ReplyDeleteसादर.
धन्यवाद :)
Deletebahut sahi likhti hai aap...aur kya kahu bheetar tak chalaa aata hai
ReplyDeleteशुक्रिया, संजय जी !
Deleteअब इसे भी देखिए >> http://corakagaz.blogspot.in/2013/05/whirling-memories.html कभी-कभी रचनाओं में अनायास ही ऐसा साम्य आ जाता है ।
ReplyDeleteऔर इसे देख के खुशी भी होती है कि कोई और भी मेरे जैसा सोचता है।
वाह, अद्भुत समानता . अविश्वसनीय ! मेरे साथ भी ऐसा कई बार हुआ है, और मुझे लगता है कहीं किसी ने कॉपी मारा है. पर आज मेरी इस सोच में फ़र्क पड़ा ! दो लोग वाकई एक जैसा सोच सकते हैं, भाव एक से होना बिल्कुल संभव है. शुक्रिया, अपनी पोस्ट साझा करने के लिए. बहुत-बहुत आभार आपका !
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