Friday, February 21, 2014

साया

तुम्हारी आहटों पर दिल किसी का, जब न धड़के 
तू परेशां हो इधर, और आँख वो उधर न फड़के 
न हो व्याकुलता, जो हर वक़्त पला करती थी 
न निगाहें रहीं, जो साथ चला करती थी. 
न हो ख़ुश्बू वो पहले सी, इन फ़िज़ाओं में 
न ही कोई नाम ले अब तेरा उन दुआओं में 
जहाँ मौजूदगी का तेरे, अब एहसास नहीं 
कोई दिखता तो है, पर फिर भी तेरे पास नहीं 
नही वो आसमाँ जिसमें सुकून रहता था 
वो जो तेरे लिए जीना जुनून कहता था 
न है अधिकार बाकी, न ही वो अब बात रही 
एक अंजान शख़्स सी ही तेरी जब बिसात रही 
गिरे आँसू इधर, और वहाँ अभिमान दिखे 
हरेक पल इस मोहब्बत का ये अपमान दिखे 
तो जान ले तू ए-दोस्त, वो प्यार तेरा नहीं 
तराशा था जो तूने ख्वाब, अब सुनहरा नहीं 
है ये क़िस्मत तेरी, पर दोषी इसका तू भी कहीं
चले जहाँ से थे, बस आज तुम खड़े हो वहीं 
हाँ, जिसका डर था, 'हादसा' वही अब हो गया है 
वो जो 'साया' था तेरा, भीड़ में अब खो गया है. 

प्रीति 'अज्ञात''

3 comments:

  1. शुक्रिया, विभा जी :)

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  2. भावों से नाजुक शब्‍द को बहुत ही सहजता से रचना में रच दिया आपने.........

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    1. बस कोशिश की है... शुक्रिया !

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