Saturday, November 30, 2013

रेगिस्तान.....


 कहाँ टिक पाता है, कोई 
भीड़भाड़ वाले माहौल में  
ज़्यादा देर तक. 
इक बेचैनी सी  
होने लगती है 
और घुटता है दम 
लड़खड़ातीं हैं साँसें
छटपटाता है मन

और तड़प उठता है,दिल
तलाशने को एक ऐसी जगह
जहाँ जीने के लिए शर्तें न हों
न ही सीमाओं का डर हो
कि जिनको लांघ पाने का भय
मार देता है, जीते जी ही.

जीवन के कटु सत्य
दिलवा ही देते हैं
तिलांजलि, हर रिश्ते की
और रह जाती है
एक कसक बन
कुछ यादें और उम्मीदें
जिन्हें बीच राह ही
मायूस होलौट आना
पड़ता है.

उस वक़्त 
याद आता है 
वो रेत का समंदर
जहाँ मीलों दूर 
एक चेहरा तक नज़र 
नहीं आता. 
पर फिर भी मिलता है 
बेहद सुकून, अपनापन 
उस एकाकीपन में ही. 
एक रिश्ता सा जुड़ गया हो ज्यूँ 
हाथों से फिसलती  
रेत के साथ 
जिसे मुट्ठी में थामने की  
हर अधूरी कोशिश, 

मुँह चिढ़ाते हुए  
बयाँ करती है 
नाक़ाम रिश्ते की 
एक-एक कमजोरी
और उसी के बनते-बिगड़ते टीले
अहसास दिलाते हैं 
स्वप्न-महल के,अनायास ही 
टूटकर बिखर जाने का

चमचमाती रेत,  
साक्षी हुआ करती है 
जीवन के खूबसूरत पलों की. 
एकांत, सुलझाना चाहता है 
कई अबूझ पहेलियाँ 
और मृगतृष्णा याद दिलाती है 
अंजान लम्हों की तलाश में भटकते 
इस पागल मन की. 
यादों का अंतहीन 'रेगिस्तान' 
रोज ही सुनाता है, यूँ तो 
वही एक सी कहानी  
कहने को वहाँ जाकर  
हम सभी हो जाते हैं 
दुनिया से एकदम अलग 
लेकिन पा लेते हैं, ख़ुद को
अपने-आप के 
बेहद करीब ! 
प्रीति 'अज्ञात' 

Friday, November 22, 2013

क्या मिला संघर्ष से...??



कितने वर्षों से जुड़ी हूँ 
अपने इस संघर्ष से. 
छू भी ना पाया, जो था चाहा 
क्या हुआ, उद्देश्य से ? 

खुद की ही,खुद से लड़ाई 
जीत हो या हार हो. 
क्या पड़ेगा, फ़र्क अब? 
कोई भी कारागार हो !! 

मेरे होने का क्या मतलब, 
अब तलक, जाना नहीं ! 
नगमों का हर, लफ्ज़ साथी 
कोई भी ज़ुर्माना नहीं ! 

आज अपने युद्ध से ही, 
हो रही हूँ, मैं अलग ! 
ना पूछना, ऐ 'ज़िंदग़ी'अब 
क्यूँ,हो रही हूँ, विलग!! 

 प्रीति'अज्ञात'

Thursday, November 14, 2013

जीते-जी ना जान सके जो

जीते-जी ना जान सके जो
वो मरने पे क्या जानेंगे

एक मिनट की चर्चा होगी

बस दो पल का ही मौन रहेगा
सोच ज़रा मन मेरे तू अब
सच में तेरा कौन रहेगा
पल में नज़रें उधर फेरकर
वो दुनिया नई बसा लेंगे
जीते-जी ना.........

है इस जग की ये रीत यही

दुर्बल की हरदम हार हुई
कड़वी-छिछली इस बस्ती में
झूठों की जय-जयकार हुई
सच्चाई की क़ब्र खोदकर
सब तुझको उसमें गाड़ेगे 
जीते-जी ना......... 

दर्द भरा है सबका जीवन

दर्द ही सबने बाँटा है
चार पलों की खुशियाँ देकर
बस थमा दिया सन्नाटा है
अपनापन भी दे न सके जो
फिर उनसे हम क्या पा लेंगे
जीते-जी ना..........


जिसको अपना तूने समझा 
सब कुछ तो तुमने वार दिया
कैसे चुनकर उन 'अपनों' ने
अब तुझको ही दुत्कार दिया
बीच भंवर में झूले नैया
और ख़ुद ही हम डुबा लेंगे
जीते-जी ना.........

एक दिवस की पूजा होगी

तीन दिवस का रोना होगा
फिर तेरे फोटो से छिपता
घर का कोई कोना होगा
अब, राज किया जिसने उसकी
शुद्धि करने की ठानेंगे

जीते-जी ना जान सके जो

वो मरने पे क्या जानेंगे

प्रीति 'अज्ञात'

Saturday, November 9, 2013

उलझनें

उलझनें 
वक़्त की तंग गलियों से निकल
फिर उसी दोराहे पर आकर खड़े हैं हम
जहाँ सच और झूठ की दीवारों पर 
विश्वास और अविश्वास की परछाईं है
ख़्वाबों को मुट्ठी में बाँधे हुए
जज़्बात की हालात से कैसी ये लड़ाई है
कभी बनती और कभी बिगड़ती सी
आसमाँ पर बादलों की कितनी तस्वीरें
कैसे खो सी जाती हैं धुआँ होकर
जैसे ज़िंदगी से मेरी तक़दीरें !
आज फिर भीगी पलकें हैं, और दिल में 
वही ख़लिश सी छाई है..... 
रुँधे गले से कंपकँपाते शब्द कहते आकर 
इस ज़ंग में भी तूने मात ही खाई है
वक़्त का जोर या बदक़िस्मती का शामियाना
अपनी तो हर हाल में रुसवाई है
साथ देने को तैयार खड़ी खामोश सी ये 'ज़िंदगी
क्यूँ भला अब तक ना हमें रास आई है ??? 
प्रीति 'अज्ञात'