सुनो, लड़कियों
अब आ गया है उचित समय
कि तुम पोंछ आँसू
उठा लो शमशीरें
और कर दो उसी वक़्त
सर क़लम उसका
जब कोई निग़ाह किसी बदबूदार नाले की
सड़ांध भर, घूरती रहती है तुम्हें
कर दो अंग-भंग उसका
जिसका घिनौना स्पर्श तुमसे
इस संस्कारी समाज में सम्मान से जीने के
सारे अधिकार छीन लेता है
वे अपनी निर्वस्त्रता में लिप्त अट्टहास करेंगे
और साबित करना चाहेंगे
तुम्हारी हर कमजोरी
क्योंकि उनकी विकृत ग्रंथियों में
यही भरा गया है कूट-कूटकर
कि वे मालिक हैं तुम्हारी देह के
ये सत्तालोलुप तो तुम्हारे मन पर भी
करना चाहते हैं अतिक्रमण
इसलिए वही तय करेंगे
तुम्हारे कपड़ों की लम्बाई
चाल की सभ्यता
वाणी की मधुरता
व्यवहार की शिष्टता
और हँसने की प्रकृति
देखो, खुलकर न हँस देना कहीं
निर्लज़्ज़ न क़रार कर दी जाओ
सुनो, तुम निकल आओ इस
घुटन भरी खंदक से बाहर
कि इस संसार पर उतना ही अधिकार
तुम्हारा भी तो है
इससे पहले कि लुप्त हो जाए हमारी प्रजाति
और मानवता, सहनशीलता, प्रेम
मात्र क़िताबी बातें रह जाएँ
निकल आओ तुम
कि आने वाली पीढ़ियों के लिए
अब हमें ही कुछ करना होगा
ये जिम्मेदारी है हमारी
करो कुछ ऐसा कि
वे घबराएँ रात को बाहर निकलने से
कम्पन हो देह में उनकी
काम पर अकेले जाने में
यात्राएँ भयभीत कर दें उन्हें
और चीख-चीखकर करने लगें वे
ट्रेन में पुरुष डिब्बे की मांग
तो छुप जाएँ कभी
अपने ही घर के बेसमेंट में
लुट जाने के भय से
संभव है कि इस प्रक्रिया में तुम
चरित्रहीन घोषित कर दी जाओ
पर न घबराना किसी लांछन से
ओढ़ लेना उसे इक ढाल की तरह
सुनो, मत रखो आशा किसी कृष्ण की
पलटो इतिहास, सदियों से इस लड़ाई में
तुम ही हारती रही हो सदैव
आख़िर कब तक आग में कूदोगी?
कितनी बार धरती में समाओगी?
झूठे मान-सम्मान की ख़ातिर
कब तक अपनों के ही हाथों
टुकड़ा-टुकड़ा कर दी जाओगी?
इसीलिए यही वो समय है
जब बोलना आवश्यक है
यही वो समय है
जब तुम्हें मौन कर दिया जाएगा
डरो मत, सहमो मत, छुपो मत
ठहरो मत,
भय के बादल को चीरकर निकलो
हाथ थामो, मिलकर चलो
सुनो, लड़कियों
आत्म-सम्मान की जंग लड़ो
अपनी आवाज़ से गुँजा दो ये सर जमीं
बहुत सह चुकीं तुम
चलो, बहुत हुआ अब
उठो..... उठो,
उठो और
...क्रांति का उद्घोष करो!
- प्रीति 'अज्ञात'
https://www.youtube.com/watch?v=o_m8AQ2c2bY&t=1s
अब आ गया है उचित समय
कि तुम पोंछ आँसू
उठा लो शमशीरें
और कर दो उसी वक़्त
सर क़लम उसका
जब कोई निग़ाह किसी बदबूदार नाले की
सड़ांध भर, घूरती रहती है तुम्हें
कर दो अंग-भंग उसका
जिसका घिनौना स्पर्श तुमसे
इस संस्कारी समाज में सम्मान से जीने के
सारे अधिकार छीन लेता है
वे अपनी निर्वस्त्रता में लिप्त अट्टहास करेंगे
और साबित करना चाहेंगे
तुम्हारी हर कमजोरी
क्योंकि उनकी विकृत ग्रंथियों में
यही भरा गया है कूट-कूटकर
कि वे मालिक हैं तुम्हारी देह के
ये सत्तालोलुप तो तुम्हारे मन पर भी
करना चाहते हैं अतिक्रमण
इसलिए वही तय करेंगे
तुम्हारे कपड़ों की लम्बाई
चाल की सभ्यता
वाणी की मधुरता
व्यवहार की शिष्टता
और हँसने की प्रकृति
देखो, खुलकर न हँस देना कहीं
निर्लज़्ज़ न क़रार कर दी जाओ
सुनो, तुम निकल आओ इस
घुटन भरी खंदक से बाहर
कि इस संसार पर उतना ही अधिकार
तुम्हारा भी तो है
इससे पहले कि लुप्त हो जाए हमारी प्रजाति
और मानवता, सहनशीलता, प्रेम
मात्र क़िताबी बातें रह जाएँ
निकल आओ तुम
कि आने वाली पीढ़ियों के लिए
अब हमें ही कुछ करना होगा
ये जिम्मेदारी है हमारी
करो कुछ ऐसा कि
वे घबराएँ रात को बाहर निकलने से
कम्पन हो देह में उनकी
काम पर अकेले जाने में
यात्राएँ भयभीत कर दें उन्हें
और चीख-चीखकर करने लगें वे
ट्रेन में पुरुष डिब्बे की मांग
तो छुप जाएँ कभी
अपने ही घर के बेसमेंट में
लुट जाने के भय से
संभव है कि इस प्रक्रिया में तुम
चरित्रहीन घोषित कर दी जाओ
पर न घबराना किसी लांछन से
ओढ़ लेना उसे इक ढाल की तरह
सुनो, मत रखो आशा किसी कृष्ण की
पलटो इतिहास, सदियों से इस लड़ाई में
तुम ही हारती रही हो सदैव
आख़िर कब तक आग में कूदोगी?
कितनी बार धरती में समाओगी?
झूठे मान-सम्मान की ख़ातिर
कब तक अपनों के ही हाथों
टुकड़ा-टुकड़ा कर दी जाओगी?
इसीलिए यही वो समय है
जब बोलना आवश्यक है
यही वो समय है
जब तुम्हें मौन कर दिया जाएगा
डरो मत, सहमो मत, छुपो मत
ठहरो मत,
भय के बादल को चीरकर निकलो
हाथ थामो, मिलकर चलो
सुनो, लड़कियों
आत्म-सम्मान की जंग लड़ो
अपनी आवाज़ से गुँजा दो ये सर जमीं
बहुत सह चुकीं तुम
चलो, बहुत हुआ अब
उठो..... उठो,
उठो और
...क्रांति का उद्घोष करो!
- प्रीति 'अज्ञात'
https://www.youtube.com/watch?v=o_m8AQ2c2bY&t=1s