'प्रेम'
पता नहीं क्या है 'प्रेम'
पढ़े थे अनगिनत किस्से
सुनी कितनी कहानियां भी
लैला-मजनूँ , शीरी-फरहाद,
हीर-राँझा और मोहल्ले की
गुड्डी और बबलू की
अखबारों में छपी
प्रेम कहानी ने भी
मन को छुआ था कभी
पर बात बस, वहीँ तक
सीमित रही
महसूसा नहीं कभी !
तुम मिले तब,
जबकि इसके होने पर से ही
यक़ीन उठ चला था
पर बदलने लगे ख़्याल
और जाना
हाँ , यही है 'प्रेम'
तुम्हारी आवाज़
मेरी साँसें
तुम्हारा हँसना
मेरी धड़कन
तुम्हारी जीत
मेरी ख़ुशी
तुम्हारा दुःख
मेरी परेशानी
जीने लगी तुम्हें
तुमसे पूछे बग़ैर !
यक़ीनन यही था 'प्रेम'
यही है 'प्रेम'
यही होता होगा 'प्रेम'
वरना तुम्हारा स्पर्श,
अहसास की याद भर
क्यूँ देती
जाड़ों में खाई आइस्क्रीम-सी
गुदगुदाती मीठी सिहरन
तुम्हारा आलिंगन क्यूँ लगता
जैसे कछुआ घुस गया हो
अपने सुरक्षित खोल में
तुम्हारा चुम्बन क्यूँ देता
सूखी धरती पर
पहली बारिश की
पूर्णता-सा सुख
तुम्हें याद करती हूँ
तो भीगता है मन
सोचो, कैसा होता होगा
बारहों महीने भीगते रहना !
तुम कुछ कहते क्यों नहीं
क्या यही है प्रेम ?
क्या यही था प्रेम ?
क्या अब भी मेरे-तुम्हारे बीच
शामिल है प्रेम ?
अपनी क्या कहूँ
'बेवक़ूफ़ा' !
यही नाम दिया था न
तुमने मुझे
हाँ, सच्ची ! तभी तो
आज भी मैं, 'इसे'
'महबूबा' का पर्याय मान
खुश हो लेती हूँ !
- प्रीति 'अज्ञात'
पता नहीं क्या है 'प्रेम'
पढ़े थे अनगिनत किस्से
सुनी कितनी कहानियां भी
लैला-मजनूँ , शीरी-फरहाद,
हीर-राँझा और मोहल्ले की
गुड्डी और बबलू की
अखबारों में छपी
प्रेम कहानी ने भी
मन को छुआ था कभी
पर बात बस, वहीँ तक
सीमित रही
महसूसा नहीं कभी !
तुम मिले तब,
जबकि इसके होने पर से ही
यक़ीन उठ चला था
पर बदलने लगे ख़्याल
और जाना
हाँ , यही है 'प्रेम'
तुम्हारी आवाज़
मेरी साँसें
तुम्हारा हँसना
मेरी धड़कन
तुम्हारी जीत
मेरी ख़ुशी
तुम्हारा दुःख
मेरी परेशानी
जीने लगी तुम्हें
तुमसे पूछे बग़ैर !
यक़ीनन यही था 'प्रेम'
यही है 'प्रेम'
यही होता होगा 'प्रेम'
वरना तुम्हारा स्पर्श,
अहसास की याद भर
क्यूँ देती
जाड़ों में खाई आइस्क्रीम-सी
गुदगुदाती मीठी सिहरन
तुम्हारा आलिंगन क्यूँ लगता
जैसे कछुआ घुस गया हो
अपने सुरक्षित खोल में
तुम्हारा चुम्बन क्यूँ देता
सूखी धरती पर
पहली बारिश की
पूर्णता-सा सुख
तुम्हें याद करती हूँ
तो भीगता है मन
सोचो, कैसा होता होगा
बारहों महीने भीगते रहना !
तुम कुछ कहते क्यों नहीं
क्या यही है प्रेम ?
क्या यही था प्रेम ?
क्या अब भी मेरे-तुम्हारे बीच
शामिल है प्रेम ?
अपनी क्या कहूँ
'बेवक़ूफ़ा' !
यही नाम दिया था न
तुमने मुझे
हाँ, सच्ची ! तभी तो
आज भी मैं, 'इसे'
'महबूबा' का पर्याय मान
खुश हो लेती हूँ !
- प्रीति 'अज्ञात'
सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
ReplyDeleteशुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
अनूठे बिम्ब - प्रशंसनीय प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDelete