Saturday, March 28, 2015

एक बोरी आँसू

समय की चारपाई में 
कसकर बंधीं साँसें 
जूझती प्रतिदिन  
विचारों की
रस्साकशी से  
समाज की खूँटियों पे 
लटके मुर्दा संस्कार
दफ़न नहीं होते !

हर खुरदुरी मार पर
कराहता इक स्वप्न
करवट बदलकर
रोता हुआ 
बदल लेता 
आशाओं का सिरहाना
रेशमी स्वप्न
टाट की बोरी 
रास क्यूँकर आते भला 
खुरच जाता 
भावनाओं का नाज़ुक तन
बिछौने की मार
सहते हुए

उम्मीदों के छप्पर से
औंधे मुँह गिरती
एक उदास बूँद
मिलकर माटी में
शूल-सा रेत देती
कोशिशों का गला

घिसटते भाग्य की
टूटी चप्पलों के साथ
सूखा, पपड़ाता मन
इच्छाओं के होंठों पर
फेरकर जीभ
निर्मम हो
खुद ही गटक लेता
महत्वाकांक्षा की निबौली 

मौन अभिलाषा
टीस बन कोसती
लकड़ी की चारदीवारी को 
बंधे खूंटे से उठकर 
लड़खड़ाते प्रतिदिन 
कोशिशों के पाँव
ढूँढते हैं सहारा
खोलने को बंद खिड़कियाँ
उलझी, कमजोर, जिबरियों में
जाने कितनी गाँठे
टूट जाते है, दुखते है
कितने हिस्से 
आह ! इसे बुनने में
कितनी दफ़ा भीगा होगा
बुनकर का मन

गिरकर, छूटता है
इक छोर
बार-बार , लगातार 
और अचानक धूप-छाँव के खेल से
तंग आकर
चरमराती है
जीवन की चारपाई
तभी सहारा देने को
रेंगता 
जिम्मेदारियों की झोली से 
सरक, मजबूरी का अंतिम ठीकरा

चीखता इंसान 
पीटता है सर 
क़िस्मत की निष्ठुर
मजबूत दीवारों पर 
लहूलुहान हो हँसता  
स्वप्नों की सुतलियों से 
कसकर बाँध देता
वही एक बोरी आँसू
कि मन की दरारों से 
रिसता रहे हर ज़ख्म 
न वक़्त, न दुआ 
नामंज़ूर अब, हर मरहम !
- प्रीति 'अज्ञात'

Tuesday, March 17, 2015

अब... नहीं आऊँगी

यादों की मटमैली चादर
समेटकर रख दी 
उसी मखमली अलबम तले
पर न जाने इसे देख
आँख क्यूँ भर आती है
ज़िक्र हुआ तुम्हारा
जब भी कहीं
इक और उम्मीद पनपकर
पलकों से, खुद-ब-खुद
झर जाती है

अंत समय में मौन हो

ओढ़ा देना मुझे यही
मजबूर चादर
कि तुम तो तब भी 
कुछ न कह पाओगे
मैं झाँककर देखूँगी 
आसमाँ से, मायूसी में
जानती हूँ....
चुप ही रह जाओगे

अब न रहने दूँगी

कुछ भी मेरा यहाँ
अनुबंध कोई, कब
हुआ था ही कहाँ
हाँ, खुश रहो कि
चली जाऊंगी
देखना तुम क्षितिज को
हाथ थामे, नये ख्वाबों का
और फिर बेदर्दी से
मिटा देना, हर इक नाम मेरा
जो 'मिलना तय किया था'
मैंनें ही जबरन कभी
उसे निभाने अब वापिस, 
हरगिज़ नहीं आऊँगी.
- प्रीति 'अज्ञात'

* उम्र के चार दशक *

वो खाते समय सोचती नहीं
और सोचते हुए खाती जाती है
लगाती है दिन-भर का हिसाब
बच्चों का होमवर्क, प्रोजेक्ट,
घर-बाहर के ढेरों काम
झूलती है निरंतर बजती 
दरवाजे की घंटियों 
और मन की आवाज़ों के बीच 
पड़ोसिन, कोरियर, सब्जीवाला, 
सेल्समेन, पस्ती, चंदा
कभी ज़रूरतमंद तो कभी 
मोहल्ले के शैतान बच्चे भी
गाहे-बगाहे बनवा ही देते हैं 
एक अंतहीन सूची
अनियमित क्रम की 
नियमितता को
निरंतर बनाये हुए !

मुस्काती हुई, करती है
सबका स्वागत
दो हाथों के साथ ही 
चल रहा काम 
छब्बीस जगहों पर  
टेलीफ़ोन को
गर्दन में अटकाकर
दौड़ते हुए दे आती है
प्यासे पौधों को पानी

चहकती हुई चिड़िया
और कुदकती गिलहरी में 
तलाशती है बचपन
सूंघ लेती है, चुपके से 
अपने ही बगीचे का कोई फूल
पुराने गीतों को सुनते हुए
खो जाती है कहीं
और फिर बड़बड़ाते हुए
अपने-आप  पर 
करती है साफ
गैस का चूल्हा भी

उठा लेती है, 
ज़मीन पर भिनकता 
बदबूदार मोजा
बिना नाक सिकोड़े,
खीजती नहीं....... 
सुखा देती है
आश्चर्यजनक स्थानों पर पड़ी
गीली तौलिया, बिन बोले.
अलगनी में उलझती बेलों को 
सुलझा देती है, 
बग़ैर किसी सहायक.
समेटती है, यहाँ-वहाँ बिखरे
चंद अरमानों को 
सिंक में पड़े बर्तनों के शोर के बीच.
होती है बेहद उदास
पर अपेक्षाएँ नही करती,
बेहूदा स्वप्न नही धरती
न आईने में निहारती खुद को
न कभी सजती-संवरती

डूबते हुए दिन के 
गालों की लाली को
कैमरे में क़ैद कर
महसूसती है 'रोमांस'
तितलियों की उड़ान 
उसे रोमांचित नहीं करती
वो समझ चुकी है 
जीवन की शर्तें !

दिल के मनों बोझ पर 
मुस्कुराहट का
झीना आवरण ओढ़ाकर 
देती है, प्रमाणपत्र
अपने जीवित होने का
हँसती है, हर बेतुकी बात पर
ठहाका लगाकर 
कि हारी नहीं अभी, खुद से !

थका हुआ तन-मन
और शरीर में बिगड़ता
हारमोनों का संतुलन
न जाने कौन
ज़िम्मेवार है किसका
कंधे उचकाकर, चुपचाप
गटक लेती है,
एक-एक टेबलेट
सुबहो-शा

ख़त्म हो जाती है, ऐसे ही 

जीवन की हर साँझ
अब इन अधकच्ची नींदों में
इंतज़ार की सुबह नहीं होती
और अंधेरा खुलने के ठीक पहले
यकायक ही
शुरू हो जाता है
एक और लापरवाह दिन
उम्र के चार दशक
पार करती औरत का !
- प्रीति 'अज्ञात'
Pic : Google
From Paintings by Dr. S. K. Mandal

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