समय की चारपाई में
कसकर बंधीं साँसें
जूझती प्रतिदिन
विचारों की
रस्साकशी से
समाज की खूँटियों पे
लटके मुर्दा संस्कार
दफ़न नहीं होते !
हर खुरदुरी मार पर
कराहता इक स्वप्न
करवट बदलकर
रोता हुआ
बदल लेता
आशाओं का सिरहाना
रेशमी स्वप्न
टाट की बोरी
रास क्यूँकर आते भला
खुरच जाता
भावनाओं का नाज़ुक तन
बिछौने की मार
सहते हुए
उम्मीदों के छप्पर से
औंधे मुँह गिरती
एक उदास बूँद
मिलकर माटी में
शूल-सा रेत देती
कोशिशों का गला
घिसटते भाग्य की
टूटी चप्पलों के साथ
सूखा, पपड़ाता मन
इच्छाओं के होंठों पर
फेरकर जीभ
निर्मम हो
खुद ही गटक लेता
महत्वाकांक्षा की निबौली
मौन अभिलाषा
टीस बन कोसती
लकड़ी की चारदीवारी को
बंधे खूंटे से उठकर
लड़खड़ाते प्रतिदिन
कोशिशों के पाँव
ढूँढते हैं सहारा
खोलने को बंद खिड़कियाँ
उलझी, कमजोर, जिबरियों में
जाने कितनी गाँठे
टूट जाते है, दुखते है
कितने हिस्से
आह ! इसे बुनने में
कितनी दफ़ा भीगा होगा
बुनकर का मन
गिरकर, छूटता है
इक छोर
बार-बार , लगातार
और अचानक धूप-छाँव के खेल से
तंग आकर
चरमराती है
जीवन की चारपाई
तभी सहारा देने को
रेंगता
जिम्मेदारियों की झोली से
सरक, मजबूरी का अंतिम ठीकरा
चीखता इंसान
पीटता है सर
क़िस्मत की निष्ठुर
मजबूत दीवारों पर
लहूलुहान हो हँसता
स्वप्नों की सुतलियों से
कसकर बाँध देता
वही एक बोरी आँसू
कि मन की दरारों से
रिसता रहे हर ज़ख्म
न वक़्त, न दुआ
नामंज़ूर अब, हर मरहम !
- प्रीति 'अज्ञात'
कसकर बंधीं साँसें
जूझती प्रतिदिन
विचारों की
रस्साकशी से
समाज की खूँटियों पे
लटके मुर्दा संस्कार
दफ़न नहीं होते !
हर खुरदुरी मार पर
कराहता इक स्वप्न
करवट बदलकर
रोता हुआ
बदल लेता
आशाओं का सिरहाना
रेशमी स्वप्न
टाट की बोरी
रास क्यूँकर आते भला
खुरच जाता
भावनाओं का नाज़ुक तन
बिछौने की मार
सहते हुए
उम्मीदों के छप्पर से
औंधे मुँह गिरती
एक उदास बूँद
मिलकर माटी में
शूल-सा रेत देती
कोशिशों का गला
घिसटते भाग्य की
टूटी चप्पलों के साथ
सूखा, पपड़ाता मन
इच्छाओं के होंठों पर
फेरकर जीभ
निर्मम हो
खुद ही गटक लेता
महत्वाकांक्षा की निबौली
मौन अभिलाषा
टीस बन कोसती
लकड़ी की चारदीवारी को
बंधे खूंटे से उठकर
लड़खड़ाते प्रतिदिन
कोशिशों के पाँव
ढूँढते हैं सहारा
खोलने को बंद खिड़कियाँ
उलझी, कमजोर, जिबरियों में
जाने कितनी गाँठे
टूट जाते है, दुखते है
कितने हिस्से
आह ! इसे बुनने में
कितनी दफ़ा भीगा होगा
बुनकर का मन
गिरकर, छूटता है
इक छोर
बार-बार , लगातार
और अचानक धूप-छाँव के खेल से
तंग आकर
चरमराती है
जीवन की चारपाई
तभी सहारा देने को
रेंगता
जिम्मेदारियों की झोली से
सरक, मजबूरी का अंतिम ठीकरा
चीखता इंसान
पीटता है सर
क़िस्मत की निष्ठुर
मजबूत दीवारों पर
लहूलुहान हो हँसता
स्वप्नों की सुतलियों से
कसकर बाँध देता
वही एक बोरी आँसू
कि मन की दरारों से
रिसता रहे हर ज़ख्म
न वक़्त, न दुआ
नामंज़ूर अब, हर मरहम !
- प्रीति 'अज्ञात'