मेरे वो ख़त...... 
भेजे थे तुमको,कुछ मैने 
रातों को गिन-गिन तारे. 
फ़िर बैठी थी,उम्मीदों में, 
अब तू मेरा नाम पुकारे. 
 माना क़ि दूरी है थोड़ी, 
पर हममें, कुछ गिले नहीं हैं. 
मेरे जो नन्हे से ख़त थे, 
क्या वो तुमको मिले नहीं हैं? 
 छुप-छुप कर देती हूँ तुमको , 
तेरा मुझ पर जो अधिकार. 
यूँ बाक़ी है चाह अभी ये, 
कदमों में भर दूं ,संसार. 
 पहले थी जो झिझक, गई अब 
लब पहले से, सिले नहीं हैं. 
मेरे वो नन्हे से ख़त क्या 
अब भी तुमको मिले नहीं हैं? 
पैग़ाम तेरा अब तक ना आया, 
हमने सारी उम्र सहेज़ी. 
 जीवन के आख़िरी चरण में, 
पहले से वो, सिलसिले नहीं हैं. 
एक बार अब,आकर कह दो 
सच में!वो ख़त मिले नहीं हैं !!! 
प्रीति 'अज्ञात' 


 
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