गर जानना चाहो, उसको तो...!
वह नितांत अकेला है घुट रहा है, अंतर्मन में पर भयभीत हैं, सब उसके बाह्य स्वरूप से. आहत कर देती है, सबको उसके आवाज़ की तल्खी विचारों में छलकती कड़वाहट उसका व्यथित, क्षुब्ध, आक्रोशित रूप. उस तक पहुँचकर भी, कोई ना जान पाया, उसके हृदय को हीन, कुंठित, अवसाद से घिरा कह सभी ने अस्वीकार किया उसको दर्शित होता है सबको उसका सिर्फ़ प्रसुप्त ज्वालामुखी सा, प्रचंड रूप, जिसने हमेशा तबाह किया है अपने गुस्से के लावे से अपने ही आसपास की धरा को और खुद कायांतरित हो गया, एक कठोर, अडिग, अटल चट्टान में. क्यूँ ना बने वो ऐसा तुम क्या जानो, झेला उसने जीवन कैसा जूझता है, खुद से ही हर क्षण लड़ता है, अपने इस विचलित मन से किया हर कर्तव्य का पालन थकेहारे अपने इस तन से. बहा करता है, उसमें भी
प्रेम का अथाह समुंदर
जो हो सके, तो झाँक लो
उसके कोमल मन के अंदर.
जो जानना चाहते हो, उसको तो
बन जाओ, समर्पण का भाव लिए
बस उसकी सलिला
पा सकोगे उसको तभी
जब जान लोगे, पूरी तरह
उसके भीतर का मर्म !
प्रीति 'अज्ञात'
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