The Frustrated One
ये पोस्ट किसी व्यक्ति विशेष के बारे में ना होकर, एक समुदाय के बारे में है. एक ऐसा वर्ग जिसने इस समाज को बुरी तरह से निराशावाद के गर्त में धकेल दिया है. ये लोग हमारे-आपके जैसे ही दिखते हैं. सर्व-व्याप्त हैं, और हमारे अपने घर, गली- मोहल्ले में पर्याप्त मात्रा में पाए भी जाते हैं. क्षमा चाहूँगी, पर आज मैं 'कुंठाग्रस्त लोगों' की बात कर रही हूँ, The Frustrated One !
इनका गुस्से में धधकता चेहरा, आँखों में छलकता रोष, और मुस्कान तो ढूँढे से भी ना मिले, यही इनके पहचान-चिह्न हैं. मुझे इन लोगों से कोई भी परेशानी तब तक नहीं, जब तक ये अपने गुस्से का और उससे निकलने वाली ऊर्जा का प्रयोग किसी सकारात्मक कार्य में करें. जैसे घर की सफाई, बगीचे का काम या फिर कार्यालय के कामों को शीघ्र ही निबटा देना. अपनी परेशानी किसी अपने से ही साझा करें. इस ग़रीब जनता ने आपका क्या बिगाड़ा है, जो इस तरह बरसते हैं.
'बॉस' घर से नाराज़ होकर आया है, और बरसेगा अपने जूनियर्स पर, और वे बेचारे सर झुकाए सुनते रहेंगे, कि कहीं नौकरी पर ना बन आए. फिर ये लोग खुद भी बिल्कुल वही करेंगे अपने पति या पत्नी के साथ ( हाँ, जी..जमाना बदल गया है. पत्नियाँ भी बराबर टक्कर देती हैं :P ) उसके बाद बारी आती है, निरीह, अबोध बच्चों की. माँ-बाप उनके हाथों से रिमोट छीनकर तुरंत टी. वी. बंद कर देते हैं, और साथ में प्रवचन तो जाहिर तौर पर जारी रहता ही है. ये बच्चे भी कम नहीं, भाई-बहिन एक दूसरे पर मारामारी या खिलोनों की तोड़ाफोड़ी से तुरंत ही बदला लेना शुरू कर देते हैं. अंतत: भुगता किसने ???और शुरुआत कहाँ से हुई थी ??? और ये प्रक्रिया अनवरत चलती ही रहती है. फिर हम एक सुर में गाते हैं, हो रहा 'भारत-निर्माण'.हो गया जी, बस 'स्वर्ण युग' आने ही वाला है. हुह्ह्ह्ह.... इस माहौल में पले-बढ़े बच्चे भी भविष्य में यही सब करेंगे. रुकना बड़ों को ही होगा. अपने अंतर्मन में झाँकिए, टटोलिए अपनी ग़लतियों को, फिर किसी और को दोषी ठहराने की ज़हमत उठाइए !
बचपन की स्कूल की कुछ घटनाएँ आज भी झकझोर के रख देती हैं. हमारे यहाँ एक 'बड़े सर' हुआ करते थे. (नाम भी याद है मुझे उनका, पर वो अब इस दुनिया में नहीं, सो जाने दीजिए) उनका बड़ा ख़ौफ़ हुआ करता था. वो कभी-कभार ही कक्षा में आया करते थे. पर उनकी छवि बच्चों के बीच एक आतंकवादी से कम नहीं थी. आते ही तीन-चार बच्चों को मुर्गा / मुर्गी बना देना उनका सामान्य शिष्टाचार हुआ करता था. फिर अतिरिक्त सम्मान हेतु वो कुछ लड़कों को छड़ी से भी मार दिया करते थे, ये कतई ज़रूरी नहीं था, क़ि उन लड़कों ने कोई शैतानी की ही हो, बस उन बेचारों की इमेज खराब थी और सर का मूड. एक लड़के को तो हर बार उल्टा लटकाकर डराया करते थे, और पूरी क्लास सहम जाया करती थी. किसी में हिम्मत नहीं थी, क़ि उनके खिलाफ एक शब्द भी कह सके. वैसे भी ये तब आम बातें ही हुआ करती थीं.
कुछ मुझ जैसे प्राणी भी थे वहाँ, जो केवल पढ़ाई से ही मतलब रखा करते थे. पर हम पर भी उनकी कृपादृष्टि अक़सर हो ही जाया करती थी. वो हमारी जगह बदल दिया करते थे. यानी अपने दोस्तों के पास से उठकर दूसरी जगह बैठने का निर्देश. हम उदास मन से बस्ता उठाए चले तो जाते थे, पर फिर दूर से ही सब अपने-अपने दोस्तों को टुकूर-टुकूर देखा करते. दिल करता था, चीख-चीखकर कह दें...' क्यूँ बदली मेरी जगह ?? मुझे मेरा वही स्थान चाहिए, मैने आख़िर किया ही क्या है ? मेरा कोई भी दोष नहीं, नाराज़ आप हो, किसी और ही बात से, पर बदला मुझसे ले रहे हो !" पर टीचर की कड़कती आँख और 'बड़े सर' द्वारा पुन: अपमान के डर से चुप ही रहते. आँखों में आँसू ज़ज़्ब किए, वहीं ज़मीन पर उंगलियों से चित्र उकेरा करते. बुरा तो तब भी लगता है, जब अभी भी वही सब कुछ होते हुए देखती हूँ.....प्रगति सिर्फ़ इतनी सी हुई है, कि अब शब्दों में ढाल लिया करती हूँ. पर उससे क्या होता है, अगर फ़र्क ही ना पड़े तो....:(
बाकी तो क्या...सब कुशल-मंगल है !
प्रीति 'अज्ञात'