ना सोए, ना जागे
कुछ मायूस तो कुछ हैरां
रोज ही निकलते हैं.
फिर घेर के जेहन को,
गुमनाम हर धड़कन को,
हर पहर, बेशरम से
बेझिझक अंगड़ाईयाँ लिया करते हैं.
कभी मुस्कान से भरे,
कभी अवसाद में पले,
कभी आसमाँ पे निगाहें
कभी ज़मीन पे ढले.
ये मचलते हैं, अकड़ते हैं
उम्मीद भी रखते हैं,
उस गुलाबी झोपडे में
बेवक़्त ही टहलते हैं.
ना कुछ होकर भी
सब कुछ ही दे जाते,
मोती से सजा जाते.
कौन कहता है
कि इनका वज़ूद कुछ भी नहीं ???
'एहसास' मरते नहीं
ये तो सिर्फ़ ऊंघते हैं !!!!
प्रीति 'अज्ञात'
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