Wednesday, April 22, 2020

सुनो, पृथ्वी



सुनो, पृथ्वी
मीलों चली हूँ तुम्हारी हरियल सी 

कोमल छाँव में
और कितनी ही बार महसूस की 

तुम्हारे क़लेजे की उमस 
तुम्हारे दर्द का चटकना 
और भीतर ही भीतर 
घंटों घुमड़ने की आवाज़ भी
पहुँची है मुझ तक सैकड़ों बार 
देखा है उस सैलाब को भी  
जब -जब पछाड़ें खाकर डूबता था तुम्हारा मन

सुनो, पृथ्वी  
मैं जानती हूँ कि तुम 
अपना दुःख किसी से कहती नहीं 
हाँ, माना कि
स्नेह और सहन की ये जो
अद्भुत क्षमता है न तुममें
वह अपार है, बेमिसाल है
पर, सुनो तुम और समझो भी कभी
कि तुम्हारी क्षत विक्षत सीमाओं की परिधि में
घूमते हुए चूर हो अब
थककर हारने लगी हूँ मैं यह सब देख 

मैं कहती हूँ तुमसे आज
कि सुनो, तुम आज मेरी गोदी में सिर रख
फूटकर रो क्यों नहीं लेतीं
पर उससे पहले यारा
मैं तुम्हारे गले लग
तुम्हें अपनी बॉंहों में भींच
अदा करना चाहती हूँ शुक्रिया
और तुम्हारी ही बनाई इस बगिया के
सबसे खूबसूरत फूल तुम्हें देते हुए
चूम लेना चाहती हूँ 
तुम्हारा कोमल हाथ
- प्रीति अज्ञात 

Wednesday, March 25, 2020

ये जीवन है!

दुनिया हक्की-बक्की है इन दिनों 
जैसे उड़ा दिए हैं रंग किसी ने 
खनकती सुबह की सबसे दुर्लभ तस्वीर के 
और पोत दिया है उस पर 
लम्बी अवसाद भरी रातों का सुन्न सन्नाटा 
हवा भी बुझे मन से बह रही है कुछ यूँ
जैसे बोझिल क़दमों से लौटते हैं  
लाश को दफ़नाते हुए निराश लोग 

चौड़ी चमकदार छःछः लेन वाली सड़कें 
जहाँ आगे निकल जाने की होड़ में 
पौ फटते ही एक-दूसरे को 
कुचल देने को तैयार था आदमी 
इन दिनों पड़ी हैं सुस्त, चुपचाप
जैसे घर के किसी कोने में 
प्रेम के दो मीठे बोल की 
बाट जोहता बैठा हो कोई उपेक्षित वृद्ध

हॉर्न की अनावश्यक चिल्लपों, 
वो गाड़ियों की बेधड़क आवाजाही 
ठसाठस भरी बसें 
और बच्चे को धकेलती-दौड़ाती
स्टॉप पर छोड़ने जाती माँ 
सब नदारद हैं दिन के सुनहरे कैनवास से
सामाजिक अट्टालिकाओं की ख़िसकती नींव तले 
धँस चुकी हैं मेल-मिलाप की सारी बातें
सशंकित हैं हर चेहरा 
और संवेदनाओं ने तो जैसे 
ओढ़ लिया है भय का 
किट्ट स्याह नक़ाब 

हर पल व्यस्ततता का रोना रोता 
दिन-रात शिक़वे-शिकायतें करता मनुष्य 
यही समय ही तो चाहता रहा अपने लिए सदैव
और आज जबकि उसके 
दोनों हाथों की मुट्ठियों में 
क़ैद हैं दिन के चारों पहर 
एन उसी वक़्त किसी ने
दबोच दी है उसकी हँसी

उधर विश्व की सारी महाशक्तियाँ
एक अदृश्य विषाणु के समक्ष 
ध्वस्त हो पड़ी हैं नतमस्तक 
इधर आँखों में भय की परिभाषा लिए
हर दिशा में औंधा गिरा आदमी
अकस्मात् तलाशने लगा है  
जीवन के नवीन  मूल्य
- प्रीति 'अज्ञात'

Friday, February 21, 2020

मोए का पतो....

पेड़ गिरा कें बिल्डिंग बन गईं
खाट झुपड़ियाँ संग उखड़ गईं
सांस घुटे ल्यो घामऊ  बढ़ गई
जे का भओ?

मोए का पतो... 

दो थे कमरा आठ जना जब
संग रहत थे खात-मिलत तब
चील बिलैया लड़त फिरें अब 
जे का है गओ?
मोए का पतो....

मौड़िन के सब पैर छुअत थे
नाम पे बिनके खूब भिड़त थे
लछमी घर की प्रेम करत थे
ओ मैया! अब का भओ?
मोए का पतो.....

चैये पैसा, पर काम न कत्त
पढ़ें न लिक्खें, हाथ में लट्ठ
देस का नाम तो है गओ सट्ट
जे का है गओ?
मोए का पतो.....

देस इकट्ठो पैले भओ थो
अंग्रेजन नों कूट दओ थो
बाके बाद धरम उग गओ थो
जे काय उग गओ?
मोए का पतो....

जितऊँ चिताओ आग बरत है
जात -पात  की हवा चलत है
जान की नेकऊ ना कीमत है
जे का कद्दओ?
मोए का पतो.... 

सिगरे एक दिना रोवेंगे 
का खावेंगे का पीवेंगे 
छाती पीट पछाड़ें लेंगें 
ओ दैया, फिर का होएगो? 
मोए का पतो.... 
मोए का पतो....😞
- कॉपीराइट © प्रीति 'अज्ञात'

Saturday, February 8, 2020

कवि

कवि पढ़ लेता है
वह सब भी
जो लिखा ही न गया कभी
कवि सुन लेता है
वह सब भी
जो कहा ही न गया कभी
जी लेता है तमाम अनकहे,
अलिखित,अपठित गद्यांशों में ही
सारी उम्र अपनी 
और एक दिन उन ख़्वाबों को  
कविता की तस्वीर दे 
कर देता है मुक़म्मल 
-प्रीति 'अज्ञात' 

कभी-कभी

कभी-कभी शब्द भी
छोड़ देते हैं
कवि का साथ
आते हुए प्रश्न
और उसके बाद की
गहरी चुप्पी संग
दबी अचकचाहट में
छुपा होता है उत्तर
क्या तुमने पढ़ी है कभी
मौन की परिभाषा?
-प्रीति 'अज्ञात'