मैं चाहती हूँ
कि एक चिट्ठी लिखूँ उन देवताओं को
जिनके मत्थे मुसीबत का हर ठीकरा फोड़
निश्चिन्त हो चुका है मनुष्य
वो हत्या कर यह सोच लगा लेता है
गंगा में एक और डुबकी
'अब आगे तुम देख लोगे'
वो जाता है आस्था के कुम्भ में
दुआओं के हज़ पर
मंदिर, मस्ज़िद, गुरूद्वारे में
कभी चारों धाम की यात्रा कर तुम तक
अपने प्रायश्चित की सूची पहुँचाने की
उम्मीद लिए भटकता है उम्र भर
तो कभी मन्नतों के धागे से बाँधी आस लिए
मारा-मारा फिरता है
सुनो, ईश्वर
मनुष्य यह मानने लग गया है
कि तुम उसके पापों को पुण्य में बदलने की मशीन लिए बैठे हो
या फिर उसके सद्कार्यों का लेखा-जोखा कर
पुरस्कार देने की सुविधा है ऊपर
उसे तो यह भी भ्रम है कि जो पीड़ित हैं
वे भोग रहे हैं कोई पुराना पाप
भक्ति के तिलक और श्रद्धा के चन्दन को नमन करते हुए
मैं उस समय यह प्रश्न पूछना चाहती हूँ तुमसे
कि फिर पापी अपना जन्म क्यों बिगाड़ रहे हैं?
क्या यही सृष्टि का नियम है?
यही पारिस्थितिकी तंत्र है?
कैसा संतुलन है ये कि किसी के हाथों में खंज़र
और किसी के खोंपने की पीठ दे दी तुमने
किसी के आँगन में ख़ुशी
तो किसी के जीवन में विषबेल रोप दी तुमने
क्या तुम्हें कभी किसी अनाथ का रुदन नहीं सुनाई देता?
क्या किसी विधवा की चीखें सचमुच तुम तक नहीं पहुँचती?
क्यों छीन लेते हो निर्दोष को?
क्यों तुम्हारी आँखों के सामने भिनकते अपराधियों का
बाल भी बांका नहीं होता!
जानते हो न! अब तुमसे संभल नहीं रही
तुम्हारी ही बनाई दुनिया
सुनो, तुम अब रिटायर क्यों नहीं हो जाते?
- प्रीति 'अज्ञात'
कि एक चिट्ठी लिखूँ उन देवताओं को
जिनके मत्थे मुसीबत का हर ठीकरा फोड़
निश्चिन्त हो चुका है मनुष्य
वो हत्या कर यह सोच लगा लेता है
गंगा में एक और डुबकी
'अब आगे तुम देख लोगे'
वो जाता है आस्था के कुम्भ में
दुआओं के हज़ पर
मंदिर, मस्ज़िद, गुरूद्वारे में
कभी चारों धाम की यात्रा कर तुम तक
अपने प्रायश्चित की सूची पहुँचाने की
उम्मीद लिए भटकता है उम्र भर
तो कभी मन्नतों के धागे से बाँधी आस लिए
मारा-मारा फिरता है
सुनो, ईश्वर
मनुष्य यह मानने लग गया है
कि तुम उसके पापों को पुण्य में बदलने की मशीन लिए बैठे हो
या फिर उसके सद्कार्यों का लेखा-जोखा कर
पुरस्कार देने की सुविधा है ऊपर
उसे तो यह भी भ्रम है कि जो पीड़ित हैं
वे भोग रहे हैं कोई पुराना पाप
भक्ति के तिलक और श्रद्धा के चन्दन को नमन करते हुए
मैं उस समय यह प्रश्न पूछना चाहती हूँ तुमसे
कि फिर पापी अपना जन्म क्यों बिगाड़ रहे हैं?
क्या यही सृष्टि का नियम है?
यही पारिस्थितिकी तंत्र है?
कैसा संतुलन है ये कि किसी के हाथों में खंज़र
और किसी के खोंपने की पीठ दे दी तुमने
किसी के आँगन में ख़ुशी
तो किसी के जीवन में विषबेल रोप दी तुमने
क्या तुम्हें कभी किसी अनाथ का रुदन नहीं सुनाई देता?
क्या किसी विधवा की चीखें सचमुच तुम तक नहीं पहुँचती?
क्यों छीन लेते हो निर्दोष को?
क्यों तुम्हारी आँखों के सामने भिनकते अपराधियों का
बाल भी बांका नहीं होता!
जानते हो न! अब तुमसे संभल नहीं रही
तुम्हारी ही बनाई दुनिया
सुनो, तुम अब रिटायर क्यों नहीं हो जाते?
- प्रीति 'अज्ञात'