Wednesday, January 27, 2016

सफ़र

भीड़ भरे बाज़ार में
रोज़ ही टकराते हैं
कंधों से कंधे
कहाँ पलटकर देखता है कोई
किसी का चेहरा
बस, चले जा रहे हैं अकेले
मैं, तुम या हम सभी?

बस की बगल वाली सीट
या रेल का खचाखच भरा डिब्बा
निगाहें झाँक रहीं होती हैं
खिड़की से बाहर
मन डूबता-उतराता
एक अनिश्चित सोच में
कि कल्पनाओं की उड़ान की
हड़ताल ही नहीं होती
ठंडी आह भर हृदय
खोल लेता है, 
उल्टी किताब कोई
पर मैं जानती हूँ, तुम भी
और हम सभी
कि दूर शहर में कहीं
बसता है हमारा मन.....

उम्मीदें टटोलती हैं
उस जगह की तस्वीरें
रुक जाते हैं क़दम
इक नाम सुनते ही
धड़कनें पकड़ने को होती हैं
अपनी रफ़्तार
और यक़ायक़
उतर जाता है चेहरा
जबकि मैं जानती हूँ, तुम भी
और हम सभी
कि चलना अकेले ही होगा सबको....

'आस' अब एक रूपांतरित टीस है
बावरा मन रोज़ ही हंसता है
अपने-आप पर
और चुपके-से गिरा देता है
कुछ खारे मोती
लेकिन मैं जानती हूँ, तुम भी
और हम सभी
कि दर्द का सफ़र, तन्हा ही तय
करना होता है........

खुशी के सुंदर चौराहे पर
कुछ पलों का सुस्ताना
फिर जानी-पहचानी क़सक लिए
मज़बूर हो निकल जाना
अब करना होगा ज़तन
कि ये रास्ते खुलेंगे
आगे जाकर
जहाँ से निकल रहे होंगे
कुछ और रास्ते
और ये पुराने 
गुम हो जाएँगे
नई राहों की भीड़ में
हाँ, मैं जानती हूँ, तुम भी
और हम सभी
कि रास्तों के मुसाफ़िर
उम्र-भर साथ नहीं देते.....

करते रहना होगा इंतज़ार
सड़क किनारे बनी
उसी पत्थर की पुलिया पर 
बैठे-बैठे, पथराएँगी आँखें
हो जाओगे बुत एक दिन
बरसों बाद गर गुजरा 
उधर से कोई
पूछेगा ज़रूर, कौतुहल में
'जाना कहाँ हैं?'
तुम हैरां हो उसे देखोगे
अपने बाल नोचते हुए
और चल दोगे, दिशाहीन
शायद पत्थर भी उछालो
आसमाँ में कोई
क्योंकि मैं जानती हूँ, तुम भी
और हम सभी
कि वक़्त के साथ
'इंतज़ार' ढलता नहीं
बल्कि घुल जाता है
'रूह' के ज़र्रे-ज़र्रे में
सदियों की तपिश से भी 
फिर ये पिघलता नहीं....!
-प्रीति 'अज्ञात'

1 comment:

  1. अकेला चलना तो जिंदगी की नियति है ...

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